* लोकतंत्र के महापर्व में वाक्-चलीसा * आखिर क्यों फ़ेंका जरनैल सिंह ने जूता ? * लोकतंत्र का महापर्व और "कुछ ख्वाहिश" * "कश्मीरी पंडित" होने का दर्द * राजनेताओं हो जाओ सावधान, जाग रहा हैं हिंदुस्तान * जागो! क्योंकि देश मौत की नींद सो रहा हैं। * आखिर यह तांडव कब तक? * पाकिस्तानियों में अमेरिकी नीति का खौफ * खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह गया दादा * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 04 * क्या इसे आतंकवाद न माना जाये ? * कही कश्मीर नहीं बन जाये "असम" * जेहाद या आतंकवाद का फसाद * बेबस हिन्दुस्तान, जनता परेशान, बेखबर हुक्मरान * ‘आतंकवाद की नर्सरी’ बनता आजमगढ़ * आतंकवाद का नया रूप * आतंकवाद और राजनीति *

Sunday, December 14, 2008

"कश्मीरी पंडित" होने का दर्द

गर फ़िर्दौस बर रुए ज़मीन अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त । (फ़ारसी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शब्द) अगर इस धरती पर कहीं स्वर्ग है, (तो वो) यहीं है, यहीं है ।

प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये । सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन ने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसल्मान बनने पर, या राज्य छोड़ने पर या मरने पर मजबूर कर दिया था। नतीजा कुछ ही सदियों में कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुमत हो गया । यह तो हो गयी ख़ूबसूरत कश्मीर की इतिहास की एक बानगी।

1990 के दशक में जब आतंकवाद अपने चरम पर था तो कई आतंकवादियों ने चुन-चुन कर कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया। सरकारी आंकरे के अनुसार भारत की आज़ादी के समय कश्मीर की वादी में लगभग 15 % हिन्दू थे और बाकी मुसल्मान। आतंकवाद शुरु होने के बाद आज कश्मीर में सिर्फ़ 4 % हिन्दू बाकी रह गये हैं।

कश्मीरी पंडितों को 1990 में कश्मीर छोड़ कर भागने पर विवश करने में हिजबुल मुजाहिदीन सबसे आगे था। हलाँकि चरमपंथी गतिविधियों के तहत राज्य में पहली गोली चौदह सितंबर, 1989 को चली जिसने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू को निशाना बनाया गया था। उसके कुछ महीने बाद जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या की गई और कश्मीरी पंडितों में एक दहशत का माहौल पैदा हो गया। उस समय के हिजबुल मुजाहिदीन प्रमुख अहसान डार ने मीडिया के जरिये कश्मीरी पंडितों को घाटी से चले जाने का फरमान जारी किया था।

नतीजा बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितो ने राज्य से पलायन किया और अपना घर संपत्ति और ज़मीन से महरूम भारत के अलग-अलग राज्यों में बड़ी दयनीय स्थिति में जीवन बिता रहे हैं। आज हालत ने विस्थापित कश्मीरी पंडित को अपने देश में ही शरणार्थी बना दिया हैं।

सरकारी आंकड़े के अनुसार:
  • जम्मू कश्मीर में प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 34,878
  • कश्मीर से बाहर प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 21,684
  • शिविरों में रहने वाले परिवार : 15,045

कश्मीरी पंडित इतने भयभीत हैं कि सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर लौटने की इच्छा रखने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए 1600 करोड़ रु. का पैकेज घोषित किया था। ऐसे प्रत्येक परिवार को 7.5 लाख रुपए दिए जाने की घोषणा की गयी थी। कुछ साल पहले हिज़्बुल मुजाहिदीन के नेता सैयद सहाबुद्दीन ने कहा था कि कश्मीरी पंडित वापस अपने प्रदेश लौट सकते हैं । उन्हें उनका संगठन पूरी सुरक्षा देगा। लेकिन तमाम दावे, वादों के बाबजूद कश्मीरी पंडित वापस अपने जरो को नहीं लौटना चाहरहे हैं। आखिर क्यों???

अगर सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं??? तो इसके पीछे भी सरकारी लापरवाही जिम्मेदार है। जब कश्मीरी पंडितों ने अपनी व्यथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने रखी थी, आयोग ने इस बात को तो माना कि राज्य में मानवाधिकारों का हनन हुआ है लेकिन उनकी इस माँग को अस्वीकार कर दिया कि उन्हें नरसंहार का शिकार और आंतरिक रूप से विस्थापित माना जाए।

इसके पीछे की वजह जानने से पहले शायद इनके दर्द को समझना होगा। विस्थापित होने का दर्द, अपनों से अलग होने का दर्द, अपनी मिट्टी छुटने का दर्द, अपनों को खोने का दर्द, राहत शिविरों में रहने का दर्द, बच्चो की शिक्षा छुटने का दर्द, अपने ही देश में शरणार्थी होने का दर्द........जिस दिन हम कश्मीरी पंडितो का यह दर्द समझ जायेंगे, हम इन्हें वापस कश्मीर की हसीन फिजा में कश्मीरियत(कश्मीर की संस्कृति) फैलाते पाएंगे। कहते हैं कि हर कश्मीरी की ये ख़्वाहिश होती है कि ज़िन्दगी में एक बार, कम से कम, अपने दोस्तों के लिये वो वाज़वान(कश्मीरी दावत ) परोसे। और तब यह ख़्वाहिश न जाने कितने कश्मीरी पंडितो की पूरी होगी। वादी-ए-कश्मीर अपने बिछरे दोस्तों का तहे दिल से इस्तकबाल करने को बेचैन हैं। बाकी देश की राजनीति और राजनितिक आकाओ के रहम करम पे।

यह पोस्ट पहले भी खबरनामा पर आ चुकी हैं। लेकिन कश्मीर में बदलते राजनीतिक हालातों के बीच एक उम्मीद जग रही हैं कि शायद "कश्मीरी पंडितों" को उनकी हक वापस मिले।

सुमीत के झा (Sumit K Jha)

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Wednesday, December 3, 2008

राजनेताओं हो जाओ सावधान, जाग रहा हैं हिंदुस्तान

मुंबई हमले के विरोध में सारा देश उठ खड़ा हुआ हैं। हमले के विरोध में बुधवार को लोगों का जन सैलाब मुंबई में गेटवे ऑफ इंडिया के निकट इकट्ठा हुई। दिल्ली में भी जंतर-मंतर और इंडिया गेट पर मुंबई में हुए आतंकी हमले के विरोध में जन सैलाब उमर पड़ा। 59 घंटे की आतंक ने देश को दहशत और नफरत के जज़्बातों में गोते लगाने को मजबूर कर दिया हैं। जन सैलाब में पाकिस्तान के साथ-साथ राजनेताओं के खिलाफ़ जबर्दस्त गुस्सा देखने को मिला। देश में राजनेताओं के खिलाफ़ ऐसी नफ़रत कभी नहीं देखी गयी।

यह देश की जनता की स्वत:स्फूर्त भावना थी। यह आयोजन प्रायोजित नहीं था, एसएमएस, मेल, रेडियो स्टेशनों, टीवी चैनलों से लोगों को आतंकवाद के खिलाफ इस प्रदर्शन में शामिल होने की अपील की गई थी। इस जनआंदोलन में सभी वर्ग के लोगों ने हिस्सा लिया। जिनमें छात्र, स्वयंसेवी संगठन के लोग, प्रोफ़ेसर, बुद्धिजीवी, उद्यमी और बॉलीवुड के सितारे भी शामिल थे। प्रदर्शनकारियों के हाथों में तिरंगा झंडा, तख़्तियाँ और बैनर थी। ज़्यादातर प्रदर्शनकारी का मानना था कि हमारे सॉफ्ट स्टेट की पॉलिसी और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते ही कोई भी हमारे 'घर' में घुसकर हमें मारकर चला जाता हैं।

वहीं दूसरी तरफ़ मुंबई में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे आमजनों को मुंबई पुलिस ने बलपूर्वक भगा दिया। जिसके लिये कोई ठोस कारण नहीं बताया गया। शायद शासन की बुनियाद को हिला कर रख देनी वाली इस विरोध प्रदर्शन को सरकार पचा नहीं पा रही।
By: Sumit K Jha
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Sunday, November 30, 2008

भड़ास: बह मुझे अब भी माँ कहता है

भड़ास: बह मुझे अब भी माँ कहता है

जागो! क्योंकि देश मौत की नींद सो रहा हैं।

आखिरकार 195 से ज़्यादा बलिदानों के बुते मुंबई ने फ़िर से अपने रफ़्तार पकड़ ली। कभी न रुकने वाली मुंबई पिछ्ले तीन दिनों से ठहर सी गयी थी। सलाम उन वीरों को जिन्होंने अपने जाबांजी से मुंबा देवी और हाजी अली के इस दुलारे शहर को आतंक की काली साया से एक नयी सुबह दिखायी। सलाम एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, एनएसजी कमांडो संदीप उन्नीकृष्णन और गजेन्द्र सिंह को जिन्होंने देश के दुश्मनों से लौहा लेते हुए और उनका खात्मा करते-करते अपने प्राण न्यौछावर कर दी। यहाँ मुम्बई फायर ब्रिगेड दल के उन जाबांज कर्मचारियों का उल्लेख करना भी आवश्यक है,जिन्होनें अपने दिलेरी से ऐतिहासिक ‘ताजमहल होटल' को जलने से बचाया। 105 साल पुराने इस ऐतिहासिक होटल को जलाकर आतंक के सौदागर, इस मुल्क को कभी न भुलाने वाला दर्द देना चाहते थे। लेकिन हमेशा आग पर काबु पाने वाले फायर ब्रिगेड दल के इन जाबांजे ने इस बार आतंक की आग पर पानी फेर दिया। यह मुम्बई फायर ब्रिगेड दल के लड़ाके ही थे,जिन्होंने ताज में पहला कदम रखा और कई बंधकों को ताज से सफलतापूर्वक बाहर निकाला। धन्यवाद ताज और ओबेरॉय होटल के कर्मचारियों का जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य का पालन किया।


लेकिन इस आतंकवाद का अंत कहा और कैसे। कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन आतंकवाद रोज़ सुरसा की तरह मुंह फैलाए जा रहा हैं। कही हम राजनीतिक सत्यता के चक्कर में आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी का रुख़ अपनाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे। अकसर देखा गया है कि आतंकवादियों द्वारा एक ख़ास वर्ग को धार्मिक एवं अन्य कारणों से भड़काकर, उकसाकर आतंकी घटना को अंजाम दिया जाता है। बिना स्थानीय नागरिको के मदद से कोई भी आतंकवादी हमला हो ही नहीं सकता। मुंबई में भी जिस तरह से आतंकवादी कारवाई को अंजाम दिया गया है स्थानीय नागरिकों की संलिप्तासे इंकार नहीं किया जा सकता।


आतंकवादियों पर कठोर से कठोर कार्रवाई की जाने की जरुरत आन पड़ी हैं। जब अफगानिस्तान जैसे देश के राष्ट्रपति हामिद करजई तालिबान से तंग आकर पाकिस्तान की सीमा में घुसकर तालिबान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की चेतावनी दे सकते हैं तो भारत सरकार क्यों बांग्लादेश और पाकिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने में हिचकती है? आखिर क्यों हमेशा धमाकों से सहमकर आम जनता पर बंदिशें लगायी जाती हैं। क्यों नहीं भारत सरकार अमेरिका और इसराइल की तर्ज पर ढूँढो और मारो की नीति अपनाते हुए इन आतंक फैलाने वालों का सफाया कर उनमें पलटवार का ऐसा डर बैठाती हैं, कि कोई भी आतंकवादी या आतंकी संगठन भारत और उसके नागरिकों को नुकसान पहुँचाने से पहले सौ बार सोचने को विवश हो।


हमेशा देखा जाता है कि आतंकवादी गतिविधियों में कम उम्र के युवाओं को इस्तेमाल में लाया जाता हैं। भारत के संविधान ने सभी धर्मों को अपने धर्म के प्रचार, प्रसार व शिक्षा की स्वतंत्रता दी है, पर कई बार इसकी आड़ में बच्चों में बचपन से ही अलगाववाद की भावना भर दी जाती है। मुस्लिम मदरसे हों, सिख स्कूल हों, मिशनरी हों या हिन्दू पाठशाला, सभी के पाठ्यक्रम में एकरूपता लाई जाना चाहिए। कई बार बच्चों में दूसरे धर्मों के प्रति गलत व बुरी धारणाएँ बन जाती हैं, पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से बच्चे के दिमाग में फैली भ्रांतियाँ दूर की जा सकती हैं।


और इन सबसे उपर जरुरत हैं आतंकवाद निरोधी कानून को पुख्ता बनाने की। वर्तमान कानून इस समस्या से निपटने में प्रभावी नहीं है। भारत में कानून बड़े पुराने हैं और अब प्रासंगिक भी नहीं रहे। आतंकवाद निरोधक कानूनों की समय-समय पर समीक्षा हो, जिससे जरूरत पड़ने पर आवश्यक बदलाव या फेरबदल संभव हो। साथ ही जरुरत हैं एक संघीय एजेंसी बनाने की जिसे आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में विशेष अधिकार मिले हो। आतंकवाद पर काबू पाने के लिए आतंकवादियों अथवा आतंकवादी संगठनों के समर्थको व शुभचिंतको पर भी कठोर कार्यवाई की जाने की जरुरत भी आन पड़ी हैं।


अब जागने की जरुरत आन पड़ी हैं वर्ना देश मौत की नींद सो जायेगी।
By: Sumit K Jha
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Saturday, November 29, 2008

आखिर यह तांडव कब तक ?

देश की वित्तीय राजधानी मुबंई में आखिरकार आतंक का नंगा नाच जंबाज सिपाहियों के बलिदान के बुते समाप्त हो गया। लेकिन कोलाबा के लियोपोल्ड रेस्तराँ से शुरू हुआ आतंक का यह नंगा नाच अपने पीछे कई ज्वलंत सवाल छोड़ गया हैं। सबसे बड़ा सवाल आखिर यह तांडव कब तक ? आज देश अपने हुक्ममरानों से पूछता हैं आखिर आतंकवाद के बेदी पर और कितने बलिदान देगा हिंदुस्तान ? कितने हेमंत करकरे,मेजर संदीप उन्नीकृष्णन और गजेंद्र सिंह को पूरे राजकीय सम्मान के साथ भावभीनी श्रद्धांजलि दी जायेगी ? आखिर क्यों 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई बडा आतंकवादी हमला नहीं हुआ ? क्या सही मायने में हम आतंकवाद के खिलाफ लडाई में हार रहे हैं ? अगर हाँ, तो जिम्मेदारी किसकी ?

आतंकवादी हमेशा एक नये तरीके से अपने कारनामों को अंजाम दे रहा हैं। लेकिन तमाम वादों,कसमों और दावों के बावजूद परिणाम वहीं ढाक के तीन पात आ रहे हैं। अगर पिछ्ले कुछ आतंकवादी हमलों का विश्लेषण किया जाये, तो एक खास पैटर्न का इस्तेमाल देखने को मिलता था। लेकिन मुबंई में उसे नहीं अपनाया गया। इतना ज्यादा गोला-बारुद हमले के वक्त़ एक बार में होटल के अंदर ले जाना नामुमकिन था। तो क्या इसे पहले से होटल के अंदर जमा किया जा रहा था ? अगर हाँ, तो क्या इसे खुफ़िया तंत्र और होटल प्रशासन की लापरवही मानी जाये ? आतंकी जिस तरह से पुलिस की गाड़ी लेकर मुबंई की सड़कों पर भागे, उससे लगता था कि वे मुबंई की सड़कों से अनजान नहीं थे। तो क्या सचमुच आतंकी विदेशी थे ? या फ़िर इनके साथ कुछ स्थानीय नुमांईदे भी थे ? या ये विदेशी आतंकी पहले से मुबंई मे डेरा जमा रखे थे ? यहाँ फिर खुफ़िया तंत्र की नकामी नज़र आ रही हैं।

हमेशा की तरह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने इस हमले में विदेशी हाथ होने का दावा किया हैं। माननीय प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के पास इसके समर्थन में क्या सबुत हैं ? और अगर सबुत हैं,तो आखिर कितने बलिदानों का इंतजार हैं माननीय प्रधानमंत्री और गृहमंत्रीजी को ? मेरे पहुँचने से डर कर भाग गये आतंकी। क्या यह बयान किसी भी मुल्क के गृहमंत्री उन हालातों के बीच दे सकता हैं ? पाटिल साब अगर सचमुच आपके डर से आतंकी भाग खड़े हुये, तो कामा अस्पताल के साथ-साथ आपको ताज होटल, ओबेरॉय होटल और नरीमन हाउस भी जाना चाहिये था। अगर आप ऐसा करते तो शायद जान-माल की इतनी क्षति नहीं उठानी पड़ती।

पाटिल साब, इतनी मांगों के बावज़ूद आखिर क्यों एक आतंकवाद निरोधक केंद्रीय एजेंसी नहीं बनायी जा रहीं ? आखिर क्यों आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई को भी राज्यों के भरोसे छोर दिया गया हैं ?

अब जनता हिसाब मांगना शुरू कर चुकी हैं, और अब हुक्ममरानों को जबाब देने के लिये तैयार हो जाना चाहिये। देश के नागरिकों की जान की कीमत चंद सिक्कों में नहीं तोली जा सकती। और न हमारी मौत का फ़ैसला सीमापार बैठे कुछ कायर कर सकते हैं। भारत के सरजमीं पर आये हर सैलानी यहाँ के मेहमान हैं, कसम उन जानों की यह तांडव और नहीं।


अब यह अवाम पूछता हैं हुक्ममरानों से आखिर यह तांडव कब तक ?

Sumit K Jha(सुमीत के झा)
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Monday, November 24, 2008

पाकिस्तानियों में अमेरिकी नीति का खौफ

'न्यूयार्क टाइम्स' में एक रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद पाकिस्तानी अवाम में मुल्क के टुकड़े-टुकड़े होने का खौफ समा गया हैं। 'न्यूयार्क टाइम्स' की रविवार को प्रकाशित 'ए रिड्रोन मैप ऑफ साउथ एशिया' नामक रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तानी रणनीतिकारों और अवाम में भारत और अफगानिस्तान के बीच बन रहे रणनीतिक संबंध से खलबली मच गई है। रिपोर्ट के अनुसार, ज्यादातर पाकिस्तानी मानते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान को मजबूत करने की बजाए इस इस्लामी मुल्क के टुकड़े-टुकड़े करने में अपनी सहभागिता दे रहा हैं। रिपोर्ट में पाकिस्तान सेना के जनरल (सेवानिवृत्त) तलत मसूद के हवाले से कहा गया है कि पाकिस्तानी अवाम अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी को शक की निगाह से देख रहा हैं। जनरल (सेवानिवृत्त) तलत मसूद ने कहा कि पाकिस्तानी हुक्ममरान भारत की अफगानिस्तान में मौजूदगी से खफा हैं। और इसे रोकने के लिये अमेरिकी दख़ल चाहता हैं। लेकिन अमेरिकी सरकार इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर रही है।

पाकिस्तानी सेना के कुछ अधिकारी का मानना हैं कि पाकिस्तान में कबायली इलाकों में हो रहे अमेरिकी हमले आग में घी का काम कर रहे हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में केवल अमेरिका को फायदा हो रहा है और पाकिस्तान का तो महज इस्तेमाल किया जा रहा है। यह बात पाकिस्तानी अवाम में घर करती जा रही हैं।

भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते को भी पाकिस्तान में शक की निगाह से देखा जा रहा हैं। पाकिस्तानी सेना कुछ अधिकारियों के हवाले से कहा गया हैं कि परमाणु समझौते से साबित होता है कि भारत और अमेरिका के बीच सैन्य रिश्ते तेजी से मजबूत होते जा रहे हैं। अफगानिस्तान में भारी भारतीय निवेश को लेकर भी पाकिस्तान में खलबली मच गई है। गौरतलब है कि भारत ने अफगानिस्तान की सेना को प्रशिक्षण देने की पेशकश की थी। साथ ही साथ भारत ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में अफगानी संसद भवन के निर्माण के लिए 950 करोड़ रुपए की भारी-भरकम रकम देने का भी एलान किया था।

अमेरिका में नये बनते राजनीतिक समीकरण के बीच पाकिस्तानी अवाम की ये शिकायत कितनी सुनी जाती हैं, यह देखना मजेदार होगा।

Sumit K Jha
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Sunday, November 16, 2008

प्रेस दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं


आज 16 नवंबर, प्रेस दिवस है। हालाँकि अन्य लोगों की तरह मुझे भी पता नही था। लेकिन धन्यवाद पुण्य प्रसून बाजपेयी जी को जिन्होंने इस दिन के बारे में बताने की जहमत उठायी। खैर देर आयद, दुरुस्त आयद। बस इस प्रेस दिवस पर एक कामना, सत्य जानना जनता का हक हैं, जिसे जनता तक ले जाना हमारा फ़र्ज हैं। इसे उसी नज़र से देखा जाये।
सुमीत के झा(Sumit K Jha)

Tuesday, November 11, 2008

खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह गया दादा

करीब एक साल पहले, भारतीय क्रिकेट टीम से सौरव गांगुली को बेआबरू कर निकाला गया था। किसी ने नहीं सोचा था, भारतीय क्रिकेट टीम को जितना सिखाने वाला बंगाल का यह शेर कभी शान से नीली टोपी पहन पायेगा। लेकिन शायद आम और खास में यहीं एक अंतर होता हैं। दादा ने वापसी की, और शान से वापसी की। हमेशा बल्ले के साथ-साथ जुबान का इस्तेमाल करने वाले ने इस बार सिर्फ़ बल्ले को चुना। आलोचकों को जवाब मिला नये बनते रिकार्डों से।

न्यूजीलैंड के महान ऑलराउंडर रिचर्ड हैडली ने कहा था, कि चयनकर्त्ताओं के फ़ैसले से पहले किसी भी खिलाड़ी को अपनी सम्मानजक विदाई का फैसला कर लेना चाहिए। और दादा ने भी बेंगलुरु में एक संवाददाता सम्मेलन में बिल्कुल अचानक घोषणा की ऑस्ट्रेलिया सीरिज़ उनकी आखिरी सीरिज़ होगी। महाराजा ने अपने क्रिकेट सफ़र का आगाज 1992 में इंग्लैंड के खिलाफ़ लॉर्ड्स में शतक के साथ किया था। और यह सफ़र सात देशों के खिलाफ टेस्ट शतक के साथ अंजाम पाया। ऑस्ट्रेलिया को भारत में और पाकिस्तान को उसी के घर में 50 साल बाद हराना दादा ने ही मुमिकन बनाया। सौरव गांगुली ने कप्तान के तौर पर टीम में आक्रामकता और लड़ने की भावना जगायी। लॉर्ड्स के बालकोनी से टी-शर्ट हवा मे लहराना कौन भुल सकता हैं।

प्रिंस ऑफ़ कोलकाता ने अपने टेस्ट जीवन का समापन 113 टेस्टों में 7212 रन के साथ किया जिनमें 16 शतक और 35 अर्धशतक शामिल है। देश के सफलतम कप्तान गांगुली ने 49 टेस्टों में भारत का नेतृत्व किया और 21 मैच जीते।

दादा आपको शुक्रिया "भारतीय क्रिकेट टीम" को "टीम इंडिया" बनाने के लिये। जब भी आक्रामकता की बात आयेगी, दादा आप बहुत याद आयोगे। ऑफ साइड का वह शाट्स शायद अब देखने को नही मिलेगा। दादा, जिस खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह रहे हो, उसी खामोशी से इसे भुल मत जाना।


अलविदा दादा !!!

सुमीत के झा(sumit ke jha)
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Sunday, November 9, 2008

जोश से दौड़ी साढी दिल्ली

एयरटेल दिल्ली हाफ मैराथन में दुनिया के जाने-माने धावक व विख्यात हस्तियों समेत करीब 25 हजार लोगों ने हिस्सा लिया। इथियोपिया के देरीबा मेरगा ने हाफ मैराथन की पुरुष दौड़ 59।14 मिनट में पूरी कर जीती। इथियोपिया की ही एसेलेफेक मेरगिया ने महिला दौड़ 68।16 मिनट मे पूरी कर जीत हासिल की। सुबह सात बजे विनय मार्ग से शुरू हुए एयरटेल दिल्ली हाफ मैराथन में सितारे भी जमीं पर उतर आये। हाफ मैराथन के ब्रैंड ऐंबैसडर जैकी जॉयनर कर्सी, न्यूजीलैंड के पूर्व क्रिकेट रिचर्ड हेडली, सैफ अली खान, करीना कपूर, काजोल, अजय देवगन, विजेंद्र कुमार और मशहूर म्यूज़िक डाइरेक्टर ए आर रहमान ने दिल्ली हाफ मैराथन में सिरकत की। दिल्ली ग्रेट रन में चैरिटी अभियान को लेकर विभिन्न क्षेत्रों के हस्तियों की ड्रीम टीमें ने भी हिस्सा लिया।


इससे पहले सुबह सात बजे केंद्रीय सचिवालय स्थित विनय मार्ग से दिल्ली के उप राज्यपाल तेजेंद्र खन्ना ने हरी झंडी दिखाकर एयरटेल दिल्ली हाफ मैराथन को रवाना किया। दिल्ली हाफ मैराथन विनय मार्ग से शुरू होकर सत्य मार्ग अफ्रीका एवेन्यु सफदरजंग फ्लाईआ॓वर, अरविन्दो मार्ग, पृथ्वीराज रोड, मानसिंह रोड, अकबर रोड, राजपथ, जनपथ से वापस होते हुए विनय मार्ग स्थित सेंट्रल सेक्रेट्रिएट ग्राउंड पहुंची। इस साल इनाम में भी इजाफा किया गया था। कुल प्राइज मनी 210,000 अमेरिकी डॉलर की थी। हाफ मैराथन जीतने वाले महिला और पुरुष ऐथलीटों को 25,000 डॉलर दिए गये। दूसरे स्थान को 15000 और तीसरे को 10000 डॉलर दिए गये।

सुमीत के झा(sumit k jha)
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Wednesday, November 5, 2008

ओबामा बने अमेरिका के 44वें राष्‍ट्रपति

21 महीनों से जारी मैराथन के बाद डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बराक ओबामा अमेरिका के 44वें राष्‍ट्रपति चुन लिए गए हैं। अभी तक प्राप्त नतीजे के अनुशार डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बराक ओबामा को 367 वोट और मैक्केन के पक्ष में 168 वोट आए हैं। अमेरिका में जादुई आंकड़ा 270 इलेक्टोरल कॉलेज का होता हैं। सर्वेक्षणों की मानें तो बराक ओबामा शुरूआती दौर से ही जॉन मैक्केन पर पांच से 11 फीसदी की बढ़त बनाए हुए थे।

कई मायने में यह राष्ट्रपति चुनाव ऐतिहासिक रहा।अमेरिका के इतिहास में पहली बार कोई अश्वेत को राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त हुआ है। दो अमेरिकी अंतरिक्षयात्रियों ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपना मतदान अंतरिक्ष में किया। पिछले 40 साल में सबसे अधिक मतदान इस साल हुआ। चुनाव में लगभग तीन करोड़ वोटरों ने मतदान किया। एक अनुमान के मुताबिक प्रचार अभियान के दौरान तकरीबन दो अरब डॉलर (लगभग 100 अरब रुपए) का खर्च उम्मीदवारों ने किया था।

इस बीच शिकागो में अमेरिकी जनता से रुबुरु हुए बराक ओबामा। ओबामा ने अमेरिकी जनता को शुक्रिया कहा, और देश को आर्थिक संकट से निकालने का वादा किया।

By: सुमीत के झा (sumit k jha)
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Saturday, November 1, 2008

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 04

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01
कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02
कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03

छह महीनों में 73 बम धमाके,सिर्फ़ वर्ष 2008 में 934 से ज्यादा लोगों कि बम धमाके में मौत। इराक, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के बाद भारतवासियों ने आतंकवाद की बेदी पर सबसे ज्यादा बली दी हैं। 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ। लकिन भारत में तो क्रम सा ही बनता जा राहा हैं। जयपुर,हैदराबाद,बंगलौर,मालेगांव,दिल्ली और अब असम। आतंकियों ने बार-बार अपने हौंसलों और भारत सरकार की नाकामी को उजागर किया।

हर बार कि तरह असम धमाके के बाद रेड अलर्ट जारी कर दिया गया। लेकिन आखिर इस रेड अलर्ट से देश की आंतरिक सुरक्षा को कितनी मदद मिली ? सरकार सिर्फ़ रेड अलर्ट जारी कर अपने कर्तव्य से फ़ारिग नही हो सकती। राजनिती ने आतंकवाद के खिलाफ़ युद्घ को सिर्फ़ कमजोर किया हैं। ये आतंकवाद के प्रति नरम रुख का ही असर है, कि बाकायदा समाचार चैनलों को सूचना देने के बाद धमाके को अंजाम दिया जा रहा हैं। बदले मे सरकार रेड अलर्ट जारी कर, बयानबाज़ी कर अपने कर्तव्यो को इतिश्री कह रही हैं। राजनीतिज्ञों ने अपने तुष्टिकरण कि निति से दों धर्मों के बीच एक नफ़रत की खाईं बना दी हैं, जिसे भरने खुद राम-रहीम को आना पड़े। नफ़रत की यही खाईं आतंकवाद को खाद मुहैया करती हैं। आतंकवाद रुपी सुरसा ने न तो मंदिरों को बख्शा है और न मस्जिदों को। मरने वाला मंदिर में आरती कर रहा हो या मस्जिद में नमाज़ कर रहा हो, आतंकवादियों पर कोई फ़र्क नही पड़ता।

शायद अब वक्त़ आ गया है कि सियासतदानों को रेड अलर्ट,चौकसी,बयानबाज़ी,मुआवजों और तुष्टिकरण की राजनीति से उपर उठकर अवाम को एक सुरक्षित माहौल मुहैया कराये। वक्त़ आ गया है, कि सियासतदान संविधान के समक्ष ली गयी अखणडता की शपथ को याद करे। देश के निति निर्धारकों में जो ईच्छाशक्ति की कमी है,उसे सुधारना होगा। हम हद से अधिक उदासीन और सहिष्णु हो गए हैं। अब इन्हें अलविदा कहने का वक्त़ आ गया हैं।

दिल से बोलु तो अब आतंकवाद पर लिखने का मन नही करता। उपर वाले से बस यहीं कामना हैं, "अब बस"।

सुमीत के झा (sumit k jha)
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Friday, October 31, 2008

देश ने भुलाया प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल को

राष्ट्र ने भुला दिया लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिन को। भारत की स्वतंत्रता संग्राम मे मह्त्वपूर्ण योगदान देने वाले लौह पुरूष के जन्मदिन पर नहीं तो कोई सरकारी कार्यक्रम आयोजित हुई, और नहीं कोई विज्ञापन। भारत के एकीकरण में सरदार वल्लभ भाई पटेल की योगदान को भुलाया नही जा सकता।

नडियाद, गुजरात में झवेरभाई पटेल एवं लदबा के घर 31 अक्तूबर, 1875 को बल्लभभाई पटेल का जन्म हुआ था। बल्लभभाई पटेल के माता-पिता कृषक थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बडा योगदान खेडा संघर्ष में हुआ। लेकिन सरदार पटेल को लौह पुरूष के रूप मे स्थापित किया, देसी रियासतों के एकीकरण का उनका अभियान। भारत के 562 रजवाड़ो को भारत के संघराज्य में विलीन होने के लिए मजबूर कर दिया था, गुजरात के इस शेर ने।

लेकिन विडम्बना यह है कि आज उनके जन्म दिवस को उतना महत्व नहीं दिया जाता। हमेशा देश को अपनी महत्वाकांक्षा से बडा समझने वाली मनोवृति के इस लौह पुरूष को आज सरकार के साथ-साथ आम जनता भी भुला रही हैं। सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत रत्न जैसा सम्मान इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के भी बाद मिला। यह दुर्भाग्य नही तो और क्या हैं ?

सुमीत के झा (sumit k jha)
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Thursday, October 30, 2008

मुंबई मेरी जान ! आखिर किसकी ?

मुंबई में उत्तर भारतियों पर बढ़ते हमलों के बीच एक सवाल, आखिर किसकी है मुंबई ? हिन्दुस्तान की, महाराष्ट्र की, या फिर ठाकरे परिवार की ? मुंबा देवी के इस नगरी को किसकी नज़र लग गयी। किसने घोल दिया इतना जहर ?

देश में कहीं भी आने-जाने, रहने का संवैधानिक अधिकार सभी को प्राप्त हैं। फिर यह आरजकता क्यों ? कानून व्यवस्था को धत्ता बताते हुए, बार-बार मुंबई में उत्तर भारतियों पर हमले हो रहे हैं। "मराठी मानुष" और "हिन्दी भाषी" के बीच एक नफ़रत कि खाईं आ गयी हैं। नफ़रत के गरम आँच पर सियासतदानों ने राजनितिक रोटी सेंकनी शुरू कर दी हैं। मुंबई से शुरु हुई यह आग पटना के रास्ते दिल्ली तक आ गयी। और शायद यह आग आगे भी अपना रंग दिखायेगी।

मुंबई में नफ़रत के गुंडागर्दी में मुख्यत: सब्जी भाजी वाले, ढूध वाले, इस्त्री वाले, आटा चक्की वाले, भेल पुरी वाले,टैक्सी ऑटो वाले पिस रहे हैं। ये छोटे मोटे काम धंधों में लगे हुए कर्मठ लोग हैं। ये असंगठित हैं, इसिलिये निशाने पर हैं। मुंबई महानगर वाणिज्यिक एवं मनोरंजन केन्द्र होने के कारण काम खोजने वालों की खान बन चुकि हैं। लेकिन इनमे सिर्फ़ "भैया' लोग ही नही होते। रेलों में ठुंसकर स्वप्ननगरी आने वालों में केरल, बंगाल, गुजरात और पूरे देश के लोग होते हैं। लेकिन निशाने पर उत्तर भारतीय ही हैं, क्योंकि वे बदनाम ज्यादा हैं।मुंबई के विकास और उसे भारत की आर्थिक राजधानी बनाने में बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों का भी खून पसीना लगा है। ठाकरे परिवार इस बात को भूल रहा है कि आर्थिक राजधानी होने के कारण मुंबई में सभी को रोजगार पाने और वहां आने-जाने का संवैधानिक अधिकार है।

वक्त आ गया हैं कि राजनिती को "राज"निती से अलग किया जाये। राज ठाकरे को आगे बढ़ाने में कांग्रेस पार्टी का हाथ हैं। शिवसेना को रोकने के लिये कांग्रेस ने राज ठाकरे की "राज"निती को बढावा दिया हैं। राजनितीक दलों को तुष्टिकरण की नित्ती त्यागनी होगी। सियासतदानों को अपने इलाके में रोजगार के अवसर देने होंगें, ताकि उत्तर भारतियों को मुंबई की ख़ाक छानने न आना परे। और यह देश के सामाजिक ताने-वाने के लिए जरूरी हैं।

भूमंडलीकरण के इस दौर में, जब पूरी दुनिया एक गाँव बन गयी हैं, तब "मराठी मानुष" और "हिन्दी भाषी" की बात करना बेमानी हैं। जरूरत हैं देश को जोड़ने की, ना कि तोड़ने की। मुंबई न तो "मराठी मानुष" की हैं और न "हिन्दी भाषी" भैया लोगों की। मुंबई मेरी हैं, आपकी हैं, हम सब की हैं। मुंबई पूरे हिन्दुस्तान की जान हैं।

by: सुमीत के झा (sumit k jha)
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Monday, October 27, 2008

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं




"खबरनामा" की और से आप सब को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ! ! !

माँ लक्ष्मी आप सभी को अपनी आशिष प्रदान करे ! ! !
by: सुमीत के झा (sumit k jha)

राहुल की मुठभेड़ या हत्या

सोमवार कि सुबह मुंबई के कुर्ला इलाके में बस नंबर 332 को अपहृत करने वाला पटना के 23 वर्षीय राहुल राज की मुंबई पुलिस ने एनकाउंटर किया या फिर निर्मम हत्या ? राज ठाकरे को मारने आया यह शक्स पुलिस की गोली से मारा गया था। लेकिन पुलिसिया एनकाउंटर एक बार फिर शक के घेरे में आ रही हैं। क्या सचमुच राहुल राज को नही बचाया जा सकता था ?

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार राहुल चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि वह किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। उसने बस से सभी यात्रियों को उतार भी दिया था। बस खड़ी होने के बाद वहां काफी भीड़ थी, अगर वह चाहता तो लोगों पर फायरिंग कर सकता था। मुंबई पुलिस का यह दावा कि राहुल पर गोलीबारी जवाबी कार्रवाई के तहत की गई, सच नही लग रही। चश्मदीदों के अनुसार उसने अपनी देसी पिस्तौल से एक बार भी पुलिस की ओर फायर नहीं किया था। अगर मुंबई पुलिस ने थोड़ी-सी समझदारी से काम ली होती, तो शायद राहुल बच सकता था। वह बार बार एक मोबाइल मांग रहा था जिसके मार्फत वह अपनी बात कहना चाहता था। उसने कुछ करेंसी नोट पर लिखकर पुलिस की ओर भी फेंकी थी।

अगर राहुल राज ठाकरे को मारने आया था, तो उसे राज ठाकरे के घर के आसपास होना चाहिए था। अगर वह राज ठाकरे के किसी सभा में पिस्टल या बम के साथ पकड़ा जाता तो भरोसा किया जा सकता था। लेकिन राहुल को बेस्ट की एक बस को यात्रियों से खाली करवाकर पिस्तौल लहराने कि क्या जरूरत पर गयी ? क्या वह अपनी बात को राज ठाकरे, मुम्बई की जनता और मीडिया तक पहुचाना चाह्ता था ?

राहुल के पिता ने कहा कि उनका बेटा अपराधी नहीं हैं। उनका आरोप है कि उनके बेटे की सरेआम हत्या की गई है। बिहार के तीन कट्टर विरोधी नेता, रेल मंत्री लालू यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लोकजनशक्ति के नेता राम विलास पासवान ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मांग की कि मुंबई में राहुल की मुठभेड़ में हुई मौत की न्यायिक जांच कराई जाए। इस बीच गृह राज्य मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने कहा कि केंद्र ने राज्य से इस पूरे मामले में रिपोर्ट मांगी है।

राहुल ने अपराध किया था। और उसे सजा भी मिलनी चाहिए थी। लेकिन क्या उसका अपराध इतना संगीन था कि उसे सजा-ए-मौत दी जाए ?

by: सुमीत के झा (sumit k jha)

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Friday, October 24, 2008

बिहार में बवाल, आखिर किस से करे सवाल ?

मुंबई में उत्‍तर भारतीय छात्रों के ऊपर राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के हमले के विरोध में लगातार तीन दिनों से बिहार जल रहा हैं। और इसका असर बिहार से बाहर एवं बिहार के भीतर चलने वाली अधिकतर ट्रेनों पर देखी जा सकती हैं। पूर्व मध्य रेलवे के तहत चलने वाली 38 ट्रेनें रद्द कर दी गयी। देश के कई हिस्‍सों में लाखों यात्री फसे पड़े हैं।


बिहार में हाल फिलहाल में ऐसा उग्र प्रदर्शन देखने को नहीं मिला था। बिहार के छात्रों के साथ बद्सुलुकी कोई नयी बात नहीं हैं। पहले भी मुंबई में छात्रों के साथ जमकर गुंडागर्दी हुई हैं। तो आखिर यह बवाल इस बार क्यों ? क्या बिहार के युवाओं ने सियासतदानों से हिसाब मांगना शुरू कर दिया हैं ? बिहार के युवाओं का ये गुस्सा आखिर किस पर है- राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, शिव सेना, बिहार के रहनुमाओं या फिर अपने आप पे।


कभी दुनिया भर में शिक्षा की अलख जगाने वाला यह बिहार आखिर क्यों अपने छात्रों को देश भर में नौकरी की तलाश में भटकने को विवश कर रहा है? क्या गंगा की भूमि इतनी उज्जड हो गयी है की अपने पूजने वालो की पेट भी नहीं भर सकती ?


इन सवालों का जवाब बिहार के गर्त में ही दबा पड़ा हैं। लंबे समय से बदहाली का जीवन गुज़ार रहे बिहार के युवाओं को इस घटना ने दफ़न हो चुके बुनियादी मुद्दों को सतह पर लाने का मौका दिया हैं। सूबे के रहनुमाओं ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए यहाँ के भविष्य के साथ सिर्फ खिलवार किया हैं। कभी जातिवाद के नाम पे तो कभी नक्सलवाद के नाम पे, हमेशा लड़ना सिखाया। विकास की बात कभी नहीं की गयी, तो विकास की राजनीति की तो सोच ही बेमानी हैं।

बिहार गंगा के पूर्वी मैदान मे स्थित है। बिहार की भूमि मुख्यतः नदियों के मैदान एवं कृषियोग्य समतल भूभाग है। और यहाँ के किसानों ने अपने खून पसीनों से पंजाब के खेतों को हराभरा किया। है।प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ के कारण यहाँ के खेत बहुत उपजाउ हो सकते थे। परन्तु इसी बाढ़ के कारण यह क्षेत्र तबाही के कगार पर खड़ा है। हाजीपुर का केला एवं मुजफ्फरपुर की लीची पूरे देश में मशहूर हैं, और यह एक कुटीर उद्योग बन सकता हैं। लेकिन कभी इसके लिए इमानदार कोशिश नहीं की गयी। मखाना की पैदावार बिहार के दरभंगा एवं मधुबनी जिले में होती हैं, लेकिन शायद ही इसके खेती आगे बढाया गया हो। मधुबनी चित्रकला भी एक अच्छा कुटीर उद्योग साबित हो सकता था। पटना,दरभंगा,राजगृह,बोधगया,विक्रमशिला,अरेराज और चंपारण दर्शनीय स्थल हैं, जो रोजगार का जरिया बन सकता था।

अगर बात शिक्षा की करे तो एक समय बिहार शिक्षा के प्रमुख केन्द्रों में से एक माना जाता था लेकिन शैक्षणिक संस्थानों में राजनीति तथा अकर्मण्यता के प्रवेश करने से शिक्षा के स्तर में गिरावट आई गयी। तकनीकी शिक्षण संस्थानों की कमी ने यहाँ के छात्रों को पलायान करने पर विवश किया। उद्योग धंधो की कमी ने फिर इन्हें वापस आने नहीं दिया।

सूबे के सियासतदानों ने कभी बिहार को आगे बढाने के लिए इमानदार कोशिश नहीं की, और मुंबई के बहाने बिहार के युवाओं ने इसका हिसाब माँगना शुरु कर दिया हैं। ये गुस्सा न तो राज ठाकरे के लिए है और न शिव सेना के लिए। यह गुस्सा है अपनी लाचारी पर। यह गुस्सा है बिहार के रहनुमाओं पर। और शायद इसकी जरूरत बिहार और बिहारी अस्मिता के लिए जरूरी था।

सुमीत के झा(sumit k jha)
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सुशील प्रकरण : वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन

एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की। इस बैठक में हिंदी के कई वेब संपादक-संचालक, वेब पत्रकार, ब्लाग माडरेटर और सोशल-पोलिटिकिल एक्टीविस्ट मौजूद थे। अध्यक्षता मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने की। संचालन विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने किया। बैठक के अंत में सर्वसम्मति से तीन सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया। पहले प्रस्ताव में एचटी मीडिया के कुछ लोगों और पुलिस की मिलीभगत से वरिष्ठ पत्रकार सुशील को इरादतन परेशान करने के खिलाफ आंदोलन के लिए वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन किया गया।


इस समिति का संयोजक मशहूर पत्रकार आलोक तोमर को बनाया गया। समिति के सदस्यों में बिच्छू डाट काम के संपादक अवधेश बजाज, प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेंदु दाधीच, गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा, तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय संगठक गोपाल राय, विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी, लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार, मीडिया खबर डाट काम के संपादक पुष्कर पुष्प, भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह शामिल हैं। यह समिति एचटी मीडिया और पुलिस के सांठगांठ से सुशील कुमार सिंह को परेशान किए जाने के खिलाफ संघर्ष करेगी। समिति ने संघर्ष के लिए हर तरह का विकल्प खुला रखा है।


दूसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को परेशान करने के खिलाफ संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल अपनी बात ज्ञापन के जरिए एचटी मीडिया समूह चेयरपर्सन शोभना भरतिया तक पहुंचाएगा। शोभना भरतिया के यहां से अगर न्याय नहीं मिलता है तो दूसरे चरण में प्रतिनिधिमंडल गृहमंत्री शिवराज पाटिल और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से मिलकर पूरे प्रकरण से अवगत कराते हुए वरिष्ठ पत्रकार को फंसाने की साजिश का भंडाफोड़ करेगा। तीसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि सभी पत्रकार संगठनों से इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए संपर्क किया जाएगा और एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के खिलाफ सीधी कार्यवाही की जाएगी।


बैठक में प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेन्दु दाधीच का मानना था कि मीडिया संस्थानों में डेडलाइन के दबाव में संपादकीय गलतियां होना एक आम बात है। उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए जाने की जरूरत नहीं है। बीबीसी, सीएनएन और ब्लूमबर्ग जैसे संस्थानों में भी हाल ही में बड़ी गलतियां हुई हैं। यदि किसी ब्लॉग या वेबसाइट पर उन्हें उजागर किया जाता है तो उसे स्पोर्ट्समैन स्पिरिट के साथ लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि संबंधित वेब मीडिया संस्थान के पास अपनी खबर को प्रकाशित करने का पुख्ता आधार है और समाचार के प्रकाशन के पीछे कोई दुराग्रह नहीं है तो इसमें पुलिस के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने संबंधित प्रकाशन संस्थान से इस मामले को तूल न देने और अभिव्यक्ति के अधिकार का सम्मान करने की अपील की।


भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह ने कहा कि अब समय आ गया है जब वेब माध्यमों से जुड़े लोग अपना एक संगठन बनाएं। तभी इस तरह के अलोकतांत्रिक हमलों का मुकाबला किया जा सकता है। यह किसी सुशील कुमार का मामला नहीं बल्कि यह मीडिया की आजादी पर मीडिया मठाधीशों द्वारा किए गए हमले का मामला है। ये हमले भविष्य में और बढ़ेंगे।


विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने कहा- ''पहली बार वेब मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों मीडिया माध्यमों पर आलोचक की भूमिका में काम कर रहा है। इसके दूरगामी और सार्थक परिणाम निकलेंगे। इस आलोचना को स्वीकार करने की बजाय वेब माध्यमों पर इस तरह से हमला बोलना मीडिया समूहों की कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है। उनका यह दावा भी झूठ हो जाता है कि वे अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार हैं।


''लखनऊ से फोन पर वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कई पत्रकार पुलिस के निशाने पर आ चुके हैं। लखीमपुर में पत्रकार समीउद्दीन नीलू के खिलाफ तत्कालीन एसपी ने न सिर्फ फर्जी मामला दर्ज कराया बल्कि वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत उसे गिरफ्तार भी करवा दिया। इस मुद्दे को लेकर मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश पुलिस को आड़े हाथों लिया था। इसके अलावा मुजफ्फरनगर में वरिष्ठ पत्रकार मेहरूद्दीन खान भी साजिश के चलते जेल भेज दिए गए थे। यह मामला जब संसद में उठा तो शासन-प्रशासन की नींद खुली। वेबसाइट के गपशप जैसे कालम को लेकर अब सुशील कुमार सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना दुर्भाग्यपूर्ण है।

यह बात अलग है कि पूरे मामले में किसी का भी कहीं जिक्र नहीं किया गया है।बिच्छू डाट के संपादक अवधेश बजाज ने भोपाल से और गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा ने अहमदाबाद से फोन पर मीटिंग में लिए गए फैसलों पर सहमति जताई। इन दोनों वरिष्ठ पत्रकारों ने सुशील कुमार सिंह को फंसाने की साजिश की निंदा की और इस साजिश को रचने वालों को बेनकाब करने की मांग की।


बैठक के अंत में मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सुशील कुमार सिंह को परेशान करके वेब माध्यमों से जुड़े पत्रकारों को आतंकित करने की साजिश सफल नहीं होने दी जाएगी। इस लड़ाई को अंत तक लड़ा जाएगा। जो लोग साजिशें कर रहे हैं, उनके चेहरे पर पड़े नकाब को हटाने का काम और तेज किया जाएगा क्योंकि उन्हें ये लगता है कि वे पुलिस और सत्ता के सहारे सच कहने वाले पत्रकारों को धमका लेंगे तो उनकी बड़ी भूल है। हर दौर में सच कहने वाले परेशान किए जाते रहे हैं और आज दुर्भाग्य से सच कहने वालों का गला मीडिया से जुड़े लोग ही दबोच रहे हैं। ये वो लोग हैं जो मीडिया में रहते हुए बजाय पत्रकारीय नैतिकता को मानने के, पत्रकारिता के नाम पर कई तरह के धंधे कर रहे हैं। ऐसे धंधेबाजों को अपनी हकीकत का खुलासा होने का डर सता रहा है। पर उन्हें यह नहीं पता कि वे कलम को रोकने की जितनी भी कोशिशें करेंगे, कलम में स्याही उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी। सुशील कुमार प्रकरण के बहाने वेब माध्यमों के पत्रकारों में एकजुटता के लिए आई चेतना को सकारात्मक बताते हुए आलोक तोमर ने इस मुहिम को आगे बढ़ाने पर जोर दिया।बैठक में हिंदी ब्लागों के कई संचालक और मीडिया में कार्यरत पत्रकार साथी मौजूद थे।
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अगर आप भी कोई ब्लाग या वेबसाइट या वेब पोर्टल चलाते हैं और वेब पत्रकार संघर्ष समिति में शामिल होना चाहते हैं तो aloktomar@hotmail.com पर मेल करें। वेब माध्यमों से जुड़े लोगों का एक संगठन बनाने की प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है। आप सबकी भागीदारी का आह्वान है।
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((इस पोस्ट को कापी करके आप अपने-अपने ब्लागों-वेबसाइटों पर प्रकाशित करें ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक यह संदेश पहुंचाया जा सके और वेब माध्यम के जरिए सुशील कुमार की लड़ाई को विस्तार दिया जा सके।))
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सुमीत के झा (sumit k jha)
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Wednesday, October 22, 2008

क्या इसे आतंकवाद न माना जाये ?

आतंकवाद का अर्थ होता है सुविचारित एवं विधिवत रूप से आतंक (भय) फैलाने वाली कार्यवाही करके अपनी बात को मनवाने के लिये दबाव बनाना। तो जो कुछ महाराष्ट्र में हो रहा है, क्या इसे आतंकवाद न कहा जाये।


कुछ राजनितिक रूप से असफल लोगो ने यह फैसला करना शुरू कर दिया, की 'भैयाओं'(महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के लिए इस्तमाल होने वाला संज्ञा) को रेलवे परीक्षा नहीं देनी दी जायेगी, और इसके लिए उम्मीदवारों की रेलवे स्टेशनों और परीक्षा केन्द्रों पर सरेआम पिटाई की गयी। कभी हिन्दू धर्म की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने वाली शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने इन छात्रों को मुंबई की सड़को पे बेरहमी से पिटाई की, और पुलिस मूकदर्शक बन कर देखती रही।


क्या यह आतंकवाद नहीं ? राज की "राज"निति का शिकार उन मासूम छात्रों को बनना पड़ा, जो बकायादा परीक्षा के द्वारा नौकरी की तलाश में स्वप्ननगरी आए थे। न तो इन्हें राज की राजनीति से कोई वास्ता था, और न रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की राजनीति से। "भैया लोग" महाराष्ट्र रोटी की तलाश में आए थे, न की "मराठी मानुष" की रोटी छीनने। इन्हें बचपन से बताया गया था देश में कहीं भी आने-जाने, रहने का इन्हें संवैधानिक अधिकार है। इन्हें यह पता नहीं था की आज इस देश के अन्दर छोटे छोटे कई देश बन चुके है,जहाँ के अपने कानून है, जहाँ के अपने शाषक हैं।


मुंबई में आजीविका की तलाश में आने वाले व्यक्ति की पिटाई करवाने वाले राज ठाकरे के दादाजी यानि कि बाल ठाकरे के पिता "प्रबोधनकर ठाकरे" खुद रोजी-रोटी की तलाश में मध्यप्रदेश से महाराष्ट्र आए थे। और यह दावा कोई और नहीं बल्कि पुणे विश्वविद्यालय की महात्मा फुले पीठ के चेयरमैन और आम्बेडकर के बारे में गहरे जानकार "प्रोफेसर हरि नार्के" ने राकांपा के मुखपत्र 'राष्ट्रवादी' में प्रकाशित अपने लेख में किया था। नार्के ने इस लेख में मनसे प्रमुख राज ठाकरे द्वारा उत्तर भारतीयों के खिलाफ जारी हमलों की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था मनसे प्रमुख राज ठाकरे को अपने दादा यानी कि बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकर ठाकरे की आत्मकथा पढ़नी चाहिए। प्रबोधनकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि उन्होंने मध्यप्रदेश में अपनी पढ़ाई की और फिर वे आजीविका के लिए कई राज्यों में घूमे।


मुंबई को अपनी बपौती समझने वाला ठाकरे परिवार खुद मुंबई का मूल निवासी नहीं हैं। यहाँ सवाल यह उठता कि जो लोग खुद दो पीढ़ियों पहले रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई आए उन्हें मुंबई में काम की तलाश में आने वालों की पिटाई का हक किसने दिया?


शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना देश में आतंकवाद फैला रही हैं। सुविचारित एवं विधिवत रूप से आतंक फैलाने वाली कार्यवाही से अपनी बात को मनवाने के लिये दबाव बनाया जा रहा हैं। और आतंकवाद इसी को कहते हैं। यह आतंकवाद का नया रूप है जिसे "क्षेञवाद का आतंकवाद" कहना गलत नहीं होगा।

सुमित के झा(sumit k jha)
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Sunday, October 19, 2008

दिल्ली शहर, हादसों का शहर

राजधानी दिल्ली का विकास मार्ग आज एक हादसे का प्रत्यक्षदर्शी बना। अहले सुबह निर्माणाधीन मेट्रो रेल के एक बडे ढांचे के सडक पर आ गिरने से 5 व्यक्ति की मौत हो गई और 15 घायल हो गए। हादसा रविवार सुबह 6:55 मिनट पे हुआ। पहली नज़र में यह एक तकनीकी भूल लगती है। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मेट्रो रेलवे ट्रैक के दो खंभों के बीच का हिस्सा रोबोटिक क्रेन के साथ जमीन पर आ गिरा। यह हिस्सा 15 फुट लंबा था।

रूट नंबर 39 की एक ब्लूलाइन बस, ट्रक और एक कार के मलबे की चपेट में आने से बस चालक सुरेन्दर पाल की मौके पर ही मौत हो गई। बाकी मरने वालो का अभी तक पहचान नहीं हो पाया है। दिल्ली मेट्रो के इतिहास में यह पहला मौका है जब निर्माणाधीन पूरा का पूरा ढांचा सडक पर आ गिरा हो।

हलाँकि दिल्ली मेट्रो सुरक्षा के लिए तमाम जरूरी सावधानी बरतती है। ऐसे में यह घटना परियोजना को समय पर पूरा करने के लिए दिखाई जा रही हड़बड़ी के कारण हो सकती हैं। कही ऐसा तो नहीं राजधानी में वर्ष 2010 में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की परियोजनाओं को समय पर पूरा करने के लिए की जा रही जल्दबाजी और हड़बड़ी के कारण सुरक्षा को ताक पे रखा जा राह हो?

इस बीच दिल्ली मेट्रो रेल निगम (डीएमआरसी) के प्रोजेक्ट मैनेजर विजय आनंद ने दुर्घटना के लिए तकनीकी गडबडी को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि मामले की उच्च स्तरीय जांच की जाएगी। उनके अनुसार मेट्रो रेल का ढांचा लगाते समय इसी तरह की लांचिंग का इस्तेमाल होता आ रहा है। लेकिन इस तरह का हादसा पहली बार हुआ है, जो इस बात का संकेत दे रहा है की यह घटना तकनीकी गडबडी का परिणाम हो सकता है,जिसकी वजह से एक हिस्से में पूरे लोहे का ढांचा और इसके साथ लगे स्लैब्स नीचे गिर गए।

यह घटना रविवार के सुबह हुआ। अगर यह घटना सोमवार से शनिवार के बीच हुआ होता, तो शायद तस्वीर ही कुछ और होती। और यही बात पूर्वी दिल्ली वासियों को राहत दे रही है।

Sumit K Jha
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Monday, October 13, 2008

"कश्मीरी पंडित" होने का दर्द

गर फ़िर्दौस बर रुए ज़मीन अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त । (फ़ारसी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शब्द)
अगर इस धरती पर कहीं स्वर्ग है, (तो वो) यहीं है, यहीं है ।

प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये । सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन ने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसल्मान बनने पर, या राज्य छोड़ने पर या मरने पर मजबूर कर दिया था। नतीजा कुछ ही सदियों में कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुमत हो गया । यह तो हो गयी ख़ूबसूरत कश्मीर की इतिहास की एक बानगी।

1990 के दशक में जब आतंकवाद अपने चरम पर था तो कई आतंकवादियों ने चुन-चुन कर कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया। सरकारी आंकरे के अनुसार भारत की आज़ादी के समय कश्मीर की वादी में लगभग 15 % हिन्दू थे और बाकी मुसल्मान। आतंकवाद शुरु होने के बाद आज कश्मीर में सिर्फ़ 4 % हिन्दू बाकी रह गये हैं।

कश्मीरी पंडितों को 1990 में कश्मीर छोड़ कर भागने पर विवश करने में हिजबुल मुजाहिदीन सबसे आगे था। हलाँकि चरमपंथी गतिविधियों के तहत राज्य में पहली गोली चौदह सितंबर, 1989 को चली जिसने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू को निशाना बनाया गया था। उसके कुछ महीने बाद जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या की गई और कश्मीरी पंडितों में एक दहशत का माहौल पैदा हो गया। उस समय के हिजबुल मुजाहिदीन प्रमुख अहसान डार ने मीडिया के जरिये कश्मीरी पंडितों को घाटी से चले जाने का फरमान जारी किया था।

नतीजा बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितो ने राज्य से पलायन किया और अपना घर संपत्ति और ज़मीन से महरूम भारत के अलग-अलग राज्यों में बड़ी दयनीय स्थिति में जीवन बिता रहे हैं। आज हालत ने विस्थापित कश्मीरी पंडित को अपने देश में ही शरणार्थी बना दिया हैं।

सरकारी आंकड़े के अनुसार:
  • जम्मू कश्मीर में प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 34,878
  • कश्मीर से बाहर प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 21,684
  • शिविरों में रहने वाले परिवार : 15,045

कश्मीरी पंडित इतने भयभीत हैं कि सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर लौटने की इच्छा रखने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए 1600 करोड़ रु. का पैकेज घोषित किया था। ऐसे प्रत्येक परिवार को 7.5 लाख रुपए दिए जाने की घोषणा की गयी थी। कुछ साल पहले हिज़्बुल मुजाहिदीन के नेता सैयद सहाबुद्दीन ने कहा था कि कश्मीरी पंडित वापस अपने प्रदेश लौट सकते हैं । उन्हें उनका संगठन पूरी सुरक्षा देगा। लेकिन तमाम दावे, वादों के बाबजूद कश्मीरी पंडित वापस अपने जरो को नहीं लौटना चाहरहे हैं। आखिर क्यों???

अगर सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं??? तो इसके पीछे भी सरकारी लापरवाही जिम्मेदार है। जब कश्मीरी पंडितों ने अपनी व्यथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने रखी थी, आयोग ने इस बात को तो माना कि राज्य में मानवाधिकारों का हनन हुआ है लेकिन उनकी इस माँग को अस्वीकार कर दिया कि उन्हें नरसंहार का शिकार और आंतरिक रूप से विस्थापित माना जाए।

इसके पीछे की वजह जानने से पहले शायद इनके दर्द को समझना होगा। विस्थापित होने का दर्द, अपनों से अलग होने का दर्द, अपनी मिट्टी छुटने का दर्द, अपनों को खोने का दर्द, राहत शिविरों में रहने का दर्द, बच्चो की शिक्षा छुटने का दर्द, अपने ही देश में शरणार्थी होने का दर्द........जिस दिन हम कश्मीरी पंडितो का यह दर्द समझ जायेंगे, हम इन्हें वापस कश्मीर की हसीन फिजा में कश्मीरियत(कश्मीर की संस्कृति) फैलाते पाएंगे। कहते हैं कि हर कश्मीरी की ये ख़्वाहिश होती है कि ज़िन्दगी में एक बार, कम से कम, अपने दोस्तों के लिये वो वाज़वान(कश्मीरी दावत ) परोसे। और तब यह ख़्वाहिश न जाने कितने कश्मीरी पंडितो की पूरी होगी। वादी-ए-कश्मीर अपने बिछरे दोस्तों का तहे दिल से इस्तकबाल करने को बेचैन हैं। बाकी देश की राजनीति और राजनितिक आकाओ के रहम करम पे।

Saturday, October 11, 2008

कही कश्मीर नहीं बन जाये "असम"???

"असम" सन 1979 से अवैध बंग्लादेशी घूसपैठिये के समस्या से लगातार जुझ रहा है। और यह घटने के बजाय विकराल रूप लेता जा रहा रहा है। बंगलादेश की खुफिया पुलिस डीजीएफआई और आईएसाअई ने सन्युक्त रणनीति के तहत बंगलादेश के लोगो को सीमा पार करा कर और दलालो के माध्यम से नागरिकता दिलवाकर असम की सामाजिक ताना बुना को नष्ट कर दिया है।

पिछले कुछ साल से असम के छात्र ,राजनीतिक और सामाजिक संगठन इसके विरुद्ध एकजुट हो रहे हैं, और यहा पर रह रहे घूसपैठिये का विरोध कर रहे है। हाल ही मे असम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और नागालैण्ड के छात्रसंघ ने इन्हे भारत छोडने की धमकी दे रखी थी। शुरुआती दौर मे इसे मह्त्त्व नही दिया गया लेकिन बाद में यह जोड पकडने लगा। इसी कडी मे अवैध बंग्लादेशी घूसपैठिये के द्वारा अगस्त के अंत मे बंद रखा गया। बन्द का व्यापक असर देखने को मिला। बन्द के दौरान जमकर हिंसा और तोड फोड की गयी जिसमे 8 असामी मारे गए। हिंसा का दौर 15 दिनो तक चलता रहा।

अब पुन: बंग्लादेशी घूसपैठिये के द्वारा हिन्दू बहुल आदिवासी बोडो, राभा, गारो, खैसा और संथाल निशाने पे हैं। असम के उदलगुड़ी और दराग जिलों में हिंसा की कई ताजे मामले सामने आ रहे हैं। अभी तक अप्रवासी अवैध बांग्लादेशियों और स्थानीय आदिवासियों के बीच संघर्ष में 52 लोग मारे गए। 12 गांवो को आग के हवाले कर दिया गया । आग के हवाले किए गए गांव के नाम है, इकरबारी, बतबारी, फकिदिया, नदीका, चकुपारा, पुनिया, झारगांव, गेरुआ, बोरबगिचा,ऐतनबारी,रौत्ताबगन और सिदकुरना। हैरान करने वाली बात तो यह है की असम के दारंग जिले की 40 प्रतिशत आबादी बंग्लादेशियो की है।

एक अनुमान के अनुसार करीब 15 लाख अवैध बंगला देशी भारत मे रह रहे है। जिनमे 8 लाख पश्चिम बंगाल मे,5 लाख पचास हजार असम मे, और 1 लाख बिहार और झारखण्ड मे( कटिहार ,साहेबगंज, और किशनगंज )। असम के पुर्ब राज्यपाल एस के सिन्हा के अनुसार असम के 40 विधान सभा सीटो पर इसी तरह के मतदाताओ का प्रभुत्व रहा हैं।

एक खबर जो इन सारे घटनाक्रमों से निकल कर आ रही है, की अप्रवासी अवैध बंगलादेशी असम में पाकिस्तानी झंडे फ़हरा रहे है। अगर यह बात सही है तो कांग्रेस के लिए यह एक शर्मनाक बात होगी। असम मे कांग्रेस की सरकार है, अब देखना यह है की मुख्यमंत्री तरुण गोगोई इस संकट से कैसे बाहर निकलते हैं। कांग्रेस असम को दूसरा कश्मीर न बनने दे। कांग्रेस को असम में तुष्टीकरण की नीत्ति छोरनी परेगी। वर्ना आने वाले पीड़ी को हम एक और संकट वारिश में दे जायेंगे।

भज्जी और मोना सिंह के ठुमके

सुनवाई सोमवार को तय।चंडीगढ़ के एक अदालत में होगी सुनवाई।
भज्जी फिर अपने ही गुगली में उलझ गए हैं। विश्व हिंदू परिषद ने ऑफ स्पिनर हरभजन सिंह के रावण तथा मॉडल एवं अभिनेत्री मोना सिंह के सीता की वेशभूषा में एक टेलिविजन शो में ठुमके लगाने के लिए चंडीगढ़ के एक अदालत में आपराधिक शिकायत दायर की हैं।

मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट कंचन माही की अदालत में अपराध प्रक्रिया संहित की धारा- 298 और 120 (बी) के तहत दायर की गई शिकायत में संगठन ने कहा की क्रिकेटर हरभजन और अभिनेत्री मोना सिंह ने रावण और सीता की वेशभूषा में नाचकर हिंदू समुदाय की भावनाओं को आहत किया है। ऐसे कृत्य से देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया जा रहा है। इसके अतिरिक्त याचिका में कहा गया है कि हरभजन सिंह पंजाब पुलिस में डीएसपी हैं और इतने बड़े ओहदे पर रहते हुए ऐसे काम करना उन्हे शोभा नहीं देता। अखिल भारतीय राजपूत परिषद और बजरंग दल की पंजाब इकाई ने भी विहिप का साथ दिया है। पंजाब वेल्फेयर ऑर्गेनाइजेशन के प्रधान वरिंदर सहदेव ने भी भज्जी और मोना से बिना शर्त माफी मांगने की मांग की है।

भज्जी-मोना के इस नृत्य पर हिंदू संगठनों के साथ-साथ सिखों ने भी आपत्ति जताई है। अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह ने कहा कि माथे पर तिलक लगाकर ऐसा डांस करना एक सिख को शोभा नहीं देता। गौरतलब है की भज्जी और मोना सिंह सिख घराने से संबंध रखते हैं।

सनद रहे की इससे पहले भी भज्जी ने केश बिखेरकर शराब कंपनी के लिए विज्ञापन किया था। जिस के कारण उन्हें सार्वजनिक तौर पर माफी मांगनी परी थी। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट कंचन माही ने मामले की सुनवाई सोमवार को तय की है। और शिकायकर्ताओं से इस सम्बंध में सबूत पेश करने को कहा है।

Saturday, October 4, 2008

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02

# तात्कालिक उपाय : धमाकों से सहमकर आम जनता पर बंदिशें लगाने के बजाय भारत सरकार को अमेरिका और इसराइल की तर्ज पर seek and destroy (ढूँढो और मारो) की नीति अपनाते हुए इन आतंक फैलाने वालों का सफाया कर उनमें पलटवार का ऐसा डर बैठाना चाहिए क‍ि कोई भी आतंकवादी या आतंकी संगठन भारत और उसके नागरिकों को नुकसान पहुँचाने से पहले सौ बार सोचे। अंतरराष्ट्रीय दबाव की परवाह किए बगैर भारत सरकार को इस मुद्दे पर कठोर रुख अख्तियार करना होगा।


# आतंकवाद निरोधी कानून : आतंकवाद निरोधी कानून को पुख्ता बनाना होगा। हाल ही में अलग-अलग राज्यों में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों की जाँच और आगे निर्विघ्न कार्रवाई के लिए एक संघीय एजेंसी बनाई जाए। सुरक्षा बलों को आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में विशेष अधिकार दिए जाएँ। वर्तमान कानून इस समस्या से निपटने में प्रभावी नहीं है। आतंकवाद पर काबू पाने के लिए आतंकवादियों अथवा आतंकवादी संगठनों के समर्थको व शुभचिंतको पर भी कठोर कार्यवाई की जाना चाहिए। भारत में कानून बड़े पुराने हैं और अब प्रासंगिक भी नहीं रहे। आतंकवाद निरोधक कानूनों की समय-समय पर समीक्षा हो, जिससे जरूरत पड़ने पर आवश्यक बदलाव या फेरबदल संभव हो।


# दीर्घकालीन उपाय : भारत के संविधान ने सभी धर्मों को अपने धर्म के प्रचार, प्रसार व शिक्षा की स्वतंत्रता दी है, पर कई बार इसकी आड़ में बच्चों में बचपन से ही अलगाववाद की भावना भर दी जाती है। मुस्लिम मदरसे हों, सिख स्कूल हों, मिशनरी हों या हिन्दू पाठशाला, सभी के पाठ्यक्रम में एकरूपता लाई जाना चाहिए। कई बार बच्चों में दूसरे धर्मों के प्रति गलत व बुरी धारणाएँ बन जाती हैं, पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से बच्चे के दिमाग में फैली भ्रांतियाँ दूर की जा सकती हैं।

# राजनीति : केन्द्र और राज्य सरकारों को भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देश की सुरक्षा के बारे में सोचना होगा। सोचिए, 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई बडा आतंकवादी हमला नहीं हुआ। यहाँ तक कि स्पेन जैसे देश में मेड्रिड धमाकों के बाद कोई हमला नहीं हुआ। दूनिया के समक्ष देश की छवि एक कमजोर राष्ट्र की बन रही है। देश के निति निर्धारकों मे ईच्छाशक्ति की जो कमी है, उस से पार पाना होगा। वोट बैंक की चिंता किये बिना आतंकवाद से लरना होगा। क्योंकि नेता हो या आम आदमी सबका वजूद इस देश से है, इसकी सुरक्षा सर्वोपरि है।

# छदम धर्मनिरपेक्ष और मानवधिकार संघठन से पार पाना : छदम धर्मनिरपेक्ष और मानवधिकार संघठन से पार पाना होगा। इन संघठानो का सिर्फ एक काम बाकी रह गया है, पुलिस की मनोबल को तोड़ना। आज तक किसी आतंकवादी हमले की बाद इनका कोई बयान नहीं आया, लेकिन पुलिस कार्रवाई की बाद कोर्ट जाना, मोमबती लेकर मार्च करना इनका सगल बन गया हैं। आतंकवादी संगठनों के इन समर्थको व शुभचिंतको पर भी कठोर कार्यवाई की जाना चाहिए। इन व्यक्ति अथवा संस्थाओं पर वित्तीय प्रतिबंध लगाए जाना चाहिए।

......जारी।

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01

आतंकवादी हमले में अकसर एक ख़ास तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा हैं। मसलन साइकिल का इस्तेमाल। कुछ अहम् बात जो इन हमले में निकल कर आ रही है....

# स्थानीय नागरिको की लिप्तता : अकसर देखा गया है कि आतंकवादियों द्वारा एक ख़ास वर्ग को धार्मिक एवं अन्य कारणों से भड़काकर, उकसाकर आतंकी घटना को अंजाम दिया जाता है। बिना स्थानीय नागरिको के मदद से कोई भी आतंकवादी हमला हो ही नहीं सकता।

# मौत के सामान की सहज उपलब्धता : हाल के आतंकवादी हमलो में इस्तेमाल की गई सभी सामान सर्वसुलभ थीं। साइकिल भारत के निम्न वर्ग का सबसे बड़ा आवागमन का साधन है, जिस पर कोई शक नहीं करता और इसे खरीदने के लिए कोई दस्तावेज नहीं देना पड़ते हैं। दूसरा है अमोनियम नाइट्रेट, जो भारत जैसे कृषिप्रधान देश में खेती के लिए आमतौर पर उपयोग में लाया जाता है। साथ ही पेट्रोल, टिफिन, नट-बोल्ट, छोटे गैस सिलेंडर, बॉल-बेरिंग जैसी वस्तुएँ तकरीबन रोजाना ही उपयोग में लाई जाती हैं।

# एक नयी ट्रेंड की शुरुआत: आतंकियों को बम कहीं से आयात नहीं करने पर रहे हैं, सब यहीं मिल जाता है। आयात होता है तो बस आतंक का विचारधारा। पहले बाकी सारे काम स्थानीय गुटों की मदद से छोटे अपराधी या ऐसे लोग जिन्हें आतंकवादियों द्वारा भड़का दिया जाता है, करते थे। अब विदेशी आतंकी संघठन का स्थान अपने लोगो ने ले लिया है। जो मासूम लोगों की भावनाओं को भड़काकर, उकसाकर आतंकी घटना को अंजाम देते है।

# सुरक्षा बलों की समस्या: शहरों में कानून-व्यवस्था पस्त हाल में है। उदाहरण के लिए जयपुर जैसे मध्यम शहर में 25 लाख की आबादी पर केवल 2500 का पुलिस बल तैनात है। सुरक्षा एजेंसियाँ भी आतंकवादी हमले के लिए प्रशिक्षित और मुस्तैद नहीं हैं। सुरक्षा इंतजाम पुख्ता न होने के कारण आतंकवादी घटनाओं को आसानी से अंजाम दिया जा रहा है।

# शांतिपूर्ण हल : शांतिपूर्ण हल की तो सोच भी बेमानी है। अतीत में हमने पंजाब समस्या, मिजो समस्या का हल शांतिपूर्ण तरीके से निकला था। लेकिन आज की हालात में आतंकवाद का भूमंडलीकरण हो चुका है,और इससे संपूर्ण मानवता आतंकित है।

# बल प्रयोग : आतंकवादियों पर कठोर से कठोर कार्रवाई की जाना चाहिए। इन्हें मदद दे रहे देशों के खिलाफ भी कठोर कदम उठाने से हिचकना नहीं चाहिए, जब अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई तालिबान से तंग आकर पाकिस्तान की सीमा में घुसकर तालिबान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की चेतावनी दे सकते हैं तो भारत सरकार क्यों बांग्लादेश और पाकिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने में हिचकती है? आतंकवादियों को बिरयानी खिलाने की नीत्ति छोरनी होगी। आतंकवादियों को आर्थिक,कानूनी और वैचारिक समर्थन देने वालो की खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाना चाहिए। संघीय एजेंसी और खुफिया तंत्रों में बेहतर तालमेल के लिए अधिकारियों को अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाए, जिससे अधिकारियों में सूचना तंत्र की समझ और नेटवर्क बढ़ाया जा सके।

........जारी।

Friday, October 3, 2008

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01

हिन्दुस्तान में आतंकवादियों के हौसले बुलंद है। सरकारें हीलिंग टच की नीति अपना रही है तो बदले मे आतंकवादी विस्फोट कर रहे हैं। निशाने पे है देश की निर्दोष जनता। आज की तारीख़ में देश का हर कोना निशाने पर आया और दिल को थर्राने वाले हादसे हुए है। ये सब कारनामे जेहाद रुपी इस्लामी आतंकवादियों का हैं। ये जहां-तहां देश के कोने-कोने में अपनी कार्यवाही को अंजाम दे रहे हैं और हमारी सरकारें मूकदर्शक बन कर खड़ी हुई है। आतंकवाद के मूल मे इस्लामी चरमपंथ है जो विश्व के अन्य हिस्सों में भी काल का दूसरा नाम बन गया है।



सरकार राजनीतिक सत्यता के चक्कर में आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी का रुख़ अपनाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही हैं। हाल के दिनों में दो घटना मुस्लिम तुष्टिकरण की तरफ ध्यान आकर्षित करती है, जो की आतंकवाद का मूल कारण हैं। पहला अमरनाथ संघर्ष में तिरंगा का अपमान। श्रीनगर में यों जलाया गया था तिरंगा....
क्या यह संसार के किसी देश में सम्भव था.....???

इस राष्ट्रीय अपमान का क्या करेंगे.........???

क्या इसे देश के खिलाफ युद्ध नहीं माना जाये..............???

दूसरी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कुलपति मुशीरुल हसन, शिक्षक और छात्र खुलकर आतंकवादियों की कानूनी और वैचारिक समर्थन में आगे आ गए। मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह हसन के उस बयान का समर्थन किया जिसमें उन्होंने जामिया के छात्रों को कानूनी मदद देने का ऐलान किया था। दरअसल कांग्रेस पार्टी आतंकवाद से कड़ाई से निपटने के नाम पर मुस्लिम वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहती।
हम आतंकवाद से निपटने में नाकाम रहे हैं। कई सरकारें आईं और गईं। लेकिन आतंकवाद रोज़ सुरसा की तरह मुंह फैलाए जा रहा है. आतंकवाद के मूल मे इस्लामी चरमपंथ है जो विश्व के अन्य हिस्सों में भी काल का दूसरा नाम बन गया है।
कैसे निपटा जाए इस आतंकवाद से, यह सवाल अहम है. उससे भी ज़्यादा अहम है आतंकवाद का मूल क्या है? क्यों दुनिया के कुछ देशों में चल रहे विवादों को अन्य देश भुगत रहे हैं? क्या ये सभ्यताओं का संघर्ष है? क्या हम राजनीतिक सत्यता के चक्कर में आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी का रुख़ अपनाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं? आख़िर कैसे निपटा जाए इस इस्लामी आतंकवाद से?

.......जारी।

Thursday, October 2, 2008

जेहाद या आतंकवाद का फसाद

जेहादी आतंक का भूमंडलीकरण हो चुका है। सारी दुनिया को कट्टरपंथी इस्लामी आस्था के लिए मजबूर करने वाले जेहादी युद्ध विश्वव्यापी है और इससे संपूर्ण मानवता आतंकित है। दक्षिण पूर्व में आस्ट्रेलिया इससे पीड़ित है। फिलीपींस, थाईलैंड इसके प्रभाव क्षेत्र हैं। रूस, मिस्त्र, युगोस्लाविया, स्पेन पीड़ित है। हलाँकि अमेरिका और ब्रिटन खुलकर आतंकवाद के खिलाफ मैदान में है। यहाँ तक की अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने जेहादी आतंकवाद को 'इस्लामी फासीवाद' कहा था।

अगर बात हिन्दुस्तान की करे तो हिन्दुस्तान जेहाद के नाम पर बढ़ रहे आतंकवाद के निशाने पे है। हम जिहाद नामी इस्लामी आतंकवाद से पिछले दो दशक से लड रहे है। जिन दिनों हिन्दुस्तान इस्लामी आतंकवाद से लड रहा था उन दिनों अमेरिका सहित पश्चिमी विश्व के लोग भारत में कश्मीर केन्द्रित आतंकवाद को स्वतंत्रता की लडाई मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। और हमने भी कभी अपने देश में चल रहे आतंकवाद को परिभाषित कर उससे लड्ने की कोई रणनीति अपनाई??? शायद कभी नहीं? इसके पीछे दो कारण हैं। एक तो हमने कभी आतंकवाद की इतना भयावह रूप की कल्पना नहीं की थी, दूसरा भारत में आतंकवाद के लिये सदैव पडोसी देश को दोषी ठहरा कर हमारे नेता अपने दायित्व से बचते रहे और तो और आतंकवाद के इस्लामी पक्ष की सदैव अवहेलना की गयी और मुस्लिम वोटबैंक के डर से इसे चर्चा में ही नहीं आने दिया गया।

हिन्दुस्तानियों ने जिहाद प्रेरित इस इस्लामी आतंकवाद से लड्ने के तीन अवसर गँवाये हैं। (१) 1989 में इस्लाम के नाम पर पकिस्तान के सहयोग से कश्मीर घाटी में हिन्दुओं को भगा दिया गया तो भी इस समस्या के पीछे छुपी इस्लामी मानसिकता को नहीं देखा गया। और कश्मीरी हिन्दुओं को उनको हाल पर छोर दिया गया। (२) 1993 में, जब जिहाद प्रेरित इस्लामी आतंकवाद कश्मीर की सीमाओं से बाहर मुम्बई पहुँचा। इस अवसर पर भी इस घटना को बाबरी ढाँचे को गिराने की प्रतिक्रिया मानकर चलना बडी भूल थी और यही वह भूल है जिसका फल आज भारत भोग रहा है। (३) 13 दिसम्बर 2001, जब संसद पर आक्रमण के बाद भी पाकिस्तान के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गयी। यह अंतिम अवसर था जब भारत में देशी मुसलमानों को आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने से रोका जा सकता था। इस समय तक भारत में आतंकवाद का स्रोत पाकिस्तान के इस्लामी संगठन और खुफिया एजेंसी हुआ करते थे और भारत के मुसलमान केवल सीमा पार से आने वाले आतंकवादियों को सहायता उपलब्ध कराते थे। इसके बाद जितने भी आतंकवादी आक्रमण भारत पर हुए उसमें भारत के जिहादी संगठन लिप्त हैं। और इन सबसे भी भयावह तो अभी के हालात् में राजनीतिक दलों और जामिया जैसे शिक्षण संस्थान का आतंकवाद का खुला समर्थन है। शिक्षा के क्षेत्र से जेहादी वायरस को दूर करना होगा।

जेहाद अपने को नये रंग में ढालने की कोशिश कर रहा है। उसका यह तेवर कितना ख़तरनाक, उसकी धार कितनी तीखी तथा जहर बुझी है, उसका अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ दिनों पहले पाकिस्तान की लाल मस्जिद में जुटी सैकड़ों महिलाओं ने अपने बच्चों को जेहादी बनाने की शपथ ली थी। महिलाओं की इस सभा को मस्जिद के मौलाना अजीज की बेटी ने संबोधित किया था। यह सही है कि हिन्दुस्तान जैसे कई देशों की इस्लामिक संस्थाएं, शिक्षण-संस्थान और उलेमा तथा विद्वान यह प्रचार कर रहे हैं कि आतंकवादी जिस जेहाद शब्द के इस्तेमाल के साथ निर्दोष लोगों का कत्ल कर रहे हैं, इस्लाम में उसको पूरी तरह ख़ारिज किया गया है। इन संस्थाओं ने इस मुत्तलिक बाकायदा मुहिम संचालित कर रखी है।

वक़्त आ गया है की, आतंकवाद के खिलाफ सारे देशो को एक मंच पर आना होगा, और इस जेहाद रुपी भाष्मासूरी विचारधारा से निजात पाया जाये। वर्ना यह सिलसिला एक अटूट श्रृंखला बनता जाएगा और हर ओसामा-बिन लादेन के पीछे आतंकी कमान संभालने के लिए उसका बेटा हमजा-बिन लादेन के रूप में तैयार खड़ा मिलेगा।

वक़्त आ गया है की जनता अपने राजनितिक आका से सवाल करे की सिमी उनके लिए मायने रखती है या जनता की सुरक्षा??

वक़्त आ गया है की जामिया जैसे संस्थान से पूछे की, क्या हक़ बनता है जनता के पैसे से आतंकवादियों की कानूनी मदद करने का???

वक़्त आ गया है अर्जुन सिंह, लालू परसाद यादव, राम विलास पासवान, मुलायम सिंह, अमर सिंह जैसे छदम धर्मनिरपेक्ष नेताओं को देशभक्ति की पाठ याद दिलाने का????

क्योकि अभी नहीं तो फिर कभी नहीं !!!

Saturday, September 27, 2008

बेबस हिन्दुस्तान, जनता परेशान, बेखबर हुक्मरान

9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई बडा आतंकवादी हमला नहीं हुआ। लेकिन राजनीतिक रुप से विफल इस देश में लगातार कई बम धमाके हुए हैं।

सही मायने में हम हिन्दुस्तानी आतंकवाद के खिलाफ लडाई में हार चुके हैं। हाल के दिनों में भारत में लगातार कई बम धमाके हुए हैं। हर घटना के बाद वादे किये जाते हैं, आतंकवाद पर काबू पाने की कसमे खाए जाती हैं। कथित मानवाधिकारवादी पुलिस का मनोबल तोड़कर आतंकवादियों का हौसला बढ़ा रहे हैं। हालाकिं कभी भी मानवाधिकारवादी आतंकवादी गतिविधियों का निंदा नहीं करते।

एक नज़र हाल के कुछ बड़े धमाकों पे-

# 27 सितम्बर 2008- देश की राजधानी दिल्ली के महरौली इलाके में एक बम विस्फोट, इस धमाके में चार लोगों के मरने की खबर है तथा कम से कम 17 लोग घायल हुए हैं।

# 13 सितंबर 2008 - दिल्ली के तीन बाज़ारों में सिलसिलेवार बम धमाके। 24 लोगों की मौत, सैकड़ों घायल। इंडियन मुजाहिदीन ने ज़िम्मेदारी ली.

# 26 जुलाई 2008 - गुजरात का अहमदाबाद शहर सिलसिलेवार धमाकों से दहला। कम से कम 16 धमाकों में 45 लोगों की जानें गईं.

# 25 जुलाई 2008 - भारत की आईटी सिटी बंगलौर में आठ धमाके, कम तीव्रता वाले इन धमाकों में एक महिला की मौत हुई जबकि घायलों की संख्या लगभग 15 थी।

# 13 मई 2008 - गुलाबी नगरी जयपुर दहली श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों से। भीड़भाड़ वाले इलाकों में सात धमाकों में कम से कम 63 लोगों को जान गंवानी पड़ी।

# 25 अगस्त 2007 - हैदरबाद में आतंकवादी हमले के लिए भीड़ भाड़ वाले इलाकों को चुना गया । इसमें 40 लोग मरे.

# 18 मई 2007 - जुमे की नमाज के वक्त हैदराबाद की ऐतिहासिक मस्जिद में धमाका। 11 लोगों की मौत। इसके बाद धमाकों के विरोध में हुए प्रदर्शनों के दौरान उग्र भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस फायरिंग में पांच की मौत.

# 19 फरवरी 2007 - भारत से पाकिस्तान जाने वाली समझौता एक्सप्रेस ट्रेन में दो बम धमाके, 66 लोगों की मौत जिनमें ज्यादातर पाकिस्तानी थे।

# 8 सितंबर 2006 - महाराष्ट्र के मालेगांव में एक मस्जिद के पास सिलसिलेवार धमाके हुए जिनमें कम से कम 32 लोग मारे गए।


# 11 जुलाई 2006 - मुंबई में ट्रेन में सिलसिलेवार सात धमाके हुए। 180 से ज्यादा लोग मारे गए।

# 7 मार्च 2006 - वाराणसी के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में तीन धमाके हुए। कम से कम 15 लोग मारे गए और 60 घायल हुए।

# 29 अक्टूबर 2005 - दिल्ली के सरोजिनी नगर बाज़ार में तीन धमाके। 66 लोगों की मौत।

# 15 अगस्त 2004 - असम में एक बम धमाका। 16 लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए। मरने वालों में ज्यादातर स्कूली बच्चे थे।

# 25 अगस्त 2003 - मुंबई में झावेरी बाजार सहित दो जगहों पर कार बम विस्फोट। 60 लोगों की मौत।

# 13 मार्च 2003 - मुंबई की लोकल ट्रेन में धमाका, 13 लोगों की मौत।


जेहादी आतंकवाद का जाल पूरे देश में फैल गया है तथा इस पर काबू पाने के लिए कठोर कदम उठाने होंगे। पुलिस को अब सेना जैसे विशेष अधिकार मिलने चाहिए ताकि वह बिना राजनीतिक दबावों के आतंकवाद को कुचल सके।

(सभी डाटा के लिए गूगल का आभार)

Tuesday, September 23, 2008

‘आतंकवाद की नर्सरी’ बनता आजमगढ़

सांकृत्यायन और कैफी का आजमगढ़ अब 'आतंकवाद की नर्सरी’ बनता जा रहा है। एक जमाने में इस्लामी शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध आजमगढ़ आज आतंकवाद की काली साया में डरा सहमा अपने पहचान बनाये रखने के लिए तड़प रहा हैं। गुलाम भारत को आजाद कराने के लिए वर्ष 1857 की क्रान्ति में आजमगढ़ के वीर शहीदों वीर कुंवर सिंह, गोगा साव, भीखा साव और आजमशाह जैसे सेनानियों ने तिरंगा हाथों में थामा और इसे ऊँचा रखने के लिए जान की बाजी लगा दी। और आज उसी आजमगढ़ की मिंट्टी ने ऐसे कपुतो को पैदा किया की, सिमी के खतरनाक आतंकवादी अबु बशर और दिल्ली विस्फोटों में शामिल साजिद और आतिफ के नाम से बदनाम हो गया है आजमगढ़।


देश के तमाम हिस्सों में हुए बम धमाकों के तार ऐसे आजमगढ़ से जुड़े कि अब तो समूचे जनपद को शर्मशार होना पड़ रहा है। जनपद के सरायमीर थाना क्षेत्र का संजरपुर कस्बा सर्वाधिक चर्चा में है, क्योंकि मारे गए आतंकवादी इसी गांव के है। 45 लाख की आबादी वाले आजमगढ़ जिले में चन्द मुट्ठीभर लोगों के हावी होने से अब आजमगढ को आतंक का गढ़ कहा जाने लगा है। चन्द मुट्ठीभर लोगों ने लगभग 45 लाख की मिश्रित आबादी- हिन्दू, मुसलमान, सिख और ईसाइयों को इस कदर बदनाम किया कि हर कोई आज इन घटनाओं से शर्मशार है।

आजमगढ़ की गंगा जमुना संस्कृति कही खो सी गयी हैं। सांकृत्यायन, कैफी आजमी ,शिक्षाविद अल्लामा शिब्ली नोमानी, पंडित अयोध्याय सिंह उपाध्याय (हरिऔध) को भुला कर, आज यहां भटक गयी युवा पीढ़ी ने दाउद इब्राहिम, अबू सलेम, हाजी मस्तान और अब मुफ्ती अबू बशीर को अपना आदर्श बना लिया है जिससे इस जिले को आतंकवादियों की जननी कहा जाने लगा है।

आज उप्र के पूर्वांचल में स्थित जनपद आजमगढ़ आतंकवादी हमलों से आहत पूरे देश की निगाह में मुजरिम साबित हो रही हैं।

एक नजर आजमगढ़ की काली इतिहास पे-
* 1993 में मुम्बई बम धमाकों का आरोपी बना आजमगढ़ के सरायमीर निवासी अबु सलेम, जो अभी भी कारागार में बन्द है।
*आजमगढ़ के मुबारकपुर थाना क्षेत्र के बम्हौर गांव के बने देशी तमन्चे से ‘कैसेट किंग’ गुलशन कुमार की हत्या।
*अयोध्या में मारे गए आतंकी इमरान का फर्जी पासपोर्ट आजमगढ़ से बना मिलना।
*वाराणसी में गिरफ्तार पाक आतंकी वलीउल्लाह का डीएल भी आजमगढ़ में बना हुआ।
*वर्ष 2000 में पाकिस्तान का एक आतंकवादी शहर से पकड़ा गया।
*वर्ष 2007 में वाराणसी कचहरी में हुए बम धमाके का आरोपी हकीम तारिक कासमी गिरफ्तार किया गया।
*14 अगस्त 2008 को आजमगढ़ के सरायमीर थाना क्षेत्र के बीनापारा से मुफ्ती अबुल बसर की गिरफ्तार हुई, जिसपर अहमदाबाद बम धमाकों का मास्टरमाइन्ड होने का आरोप है।

Monday, September 22, 2008

आतंकवाद का नया रूप

आतंकवाद की समस्या अब न केवल व्यापक रूप धारण कर रही है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसमें आतंकवादियों के शामिल होने, अत्याधुनिक हथियारों, पेशेवर प्रशिक्षण तथा नेटवर्किंग के प्रयोग के साथ ही इसने नया रूप भी ले लिया है।

इस बीच दिल्ली पुलिस ने रविवार तड़के जामिया नगर इलाके से इण्डियन मुजाहिदीन के तीन संदिग्ध आतंककारियों जिया-उर-रहमान, मोहम्मद शकील और शाकिर निसार को गिरफ्तार किया। जिया-उर-रहमान के पिता और एल-18 फ्लैट की देखरेख करने वाले अब्दुल रहमान को भी गिरफ्तार किया गया है। पुलिस ने बाटला हाउस के संरक्षक अब्दुल रहमान को आतंककारी नहीं माना है। उसका आरोप है कि अब्दुल ने जामिया नगर के बाटला हाउस में आतंककारियों के लिए फ्लैट की व्यवस्था की थी, जिसमें पांच आतंककारी पिछले दो माह से रह रहे थे।


जिया-उर-रहमान जामिया मिलिया इस्लामिया में बी.ए. तृतीय वर्ष का छात्र है। वह विस्फोट के लिए उपयुक्त स्थलों की सूचनाएं एकत्र करता था। शकील जामिया मिलिया में ही एम.ए. (अर्थशास्त्र) द्वितीय वर्ष का छात्र है। जबकि शाकिर निसार सिक्किम मणिपाल विश्वविद्यालय से दूरस्थ शिक्षा के जरिए एमबीए कर रहा है। शुक्रवार को पुलिस मुठभेड़ में मारा गया आतिफ उर्फ बशीर कम्प्यूटर व अन्य तकनीकी कामों में माहिर था। उसने संचार प्रौद्योगिकी में बी.एससी. कर रखी थी। गिरफ्तार आतंककारियों के मुताबिक वही दिल्ली धमाकों का मास्टरमाइण्ड था। उनके मुताबिक वह धमाकों की पूरी योजना बनाता था।

हर धमाके के बाद यह लोग टीवी पर खबर सुनते हुए जश्न मनाते थे। जिसके रखे बम से ज्यादा लोग मारे जाते थे उसे विशेष बधाई दी जाती थी।इन लोगों के पास एक हिन्दी पत्रिका का अंक था, जिसके मुख पृष्ठ पर धमाकों में घायल एक बच्चे की तस्वीर के साथ शीर्षक लगा था "बेचारा और बेबस भारत"।इस तस्वीर और शीर्षक से यह उपहास उड़ाते हुए आनन्द लेते थे।

यह सारे वाकये इस बात की गबाही देती है, की आतंकवाद अब एक नशा बन चुकी है, जिसके गिरफ्त में पढ़े लिखे युवा पिड्डी अपनी मर्ज़ी से सामिल हो रही है। आतंकवाद लोकतंत्र, मानवता और एक सभ्य समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा है। आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए उत्तरदायी एजेंसियाँ को अपनी जिम्मेदारियों का निष्ठापूर्वक और कानून के दायरे से बाहर जाकर निर्वाह करना होगा। इन आतंकवादियों से उनकी ही जुबान में बात करने का समय आ गया है।

समय आ गया है की हम इन वतन्परस्तो को यह बता सके की इन बम धमाके में कोई हिन्दुस्तानी मरा नहीं है। वतन पे मिटने वालो को शहीद कहते है, शहीद कभी मरते नहीं......अमर होते है ।

समय आ गया है की हम इन्हें यह बता दे, की हिन्दुस्तान बेचारा और बेबस नहीं हैं।

Saturday, September 13, 2008

फिर दहली दिल वालो की नगरी दिल्ली।

राजधानी दिल्ली में आज शाम पांच स्थानों पर हुए श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों में कम से कम 18 लोग मारे गए, तथा 90 से अधिक लोग घायल हो गये। रीगल, सेंट्रल पार्क और इंडिया गेट के पास जिंदा बम नाकाम किया गया हैं। कनॉट प्लेस, ग्रेटर कैलाश-1 और करौल बाग इलाकों में हुई इन विस्फोटों ने एक बार फिर से दिल्ली पुलिस की कलाई खोल दी।

एक बच्चे ने आतंकियों को देखने का दावा किया हैं। राहुल नाम के इस बच्चे ने पुलिस को जो विवरण दिया है, उसके अनुशार काले कुर्ता-पायजामा में थे। आतंकी धमाकों की जिम्मेदारी फिर से आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन ने ली है।

मैंने खबरनामा में अपने पिछले पोस्ट में लिखा था ," कुछ भी नही बदला हैं राजधानी दिल्ली में. आतंकियों का अगला निशाना बन सकती है दिल्ली." लेकिन लगातार मिल रही धमकियों के बावजूद न तो सुरक्षा व्यवस्था सुधारी गई, और न सतर्कता।

हमारे पुलिसया व्यवस्था की सबसे बरी खामी यह है की हम इंतज़ार करते है किसी बरी घटना के होने का। आतंकी मंसूबों के बारे में आईबी ने दिल्ली पुलिस को आगाह किया था। अगर दिल्ली पुलिस ने समय रहते एक्शन ली होती, तो आतंकी अपने मंसूबों में कामयाब न होते। हमेशा की तरह विस्फोटों के तुरंत बाद राजधानी में तथा आसपास के क्षेत्र में सतर्कता बढाने के साथ ही रेड अलर्ट घोषित कर दिया गया है।

एक अच्छी बात जो इन सिलसिलेवार बम धमाकों के बीच निकल कर आ रही है की, घायलों को शीघ्र अस्पताल पहुँचाने में जनता बढ़ चढ़ कर आगे आ रही है।


DELHI POLICE HELPLINE NO.- 011 23490312


Sunday, July 27, 2008

कितने सुरक्षित है हम???

बेंगलुरु और अहमदाबाद श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों के बाद कितनी सुरक्षित है दिल्ली??

यह एक प्रश्न नही चेतावनी हैं. कुछ भी नही बदला हैं राजधानी दिल्ली में. आतंकियों का अगला निशाना बन सकती है दिल्ली.

कल शाम जब अहमदाबाद में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट को अंजाम दी जा रही थी, मैं अपने एक दोस्त को छोङने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन गया हुआ था. अहमदाबाद बम विस्फोट की सुचना मिलने के बाद मेरे अंदर की पत्रकारिता जाग गयी और मैंने स्टेशन की सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेने की ठानी. और जो मैने अपने आँखो से देखा, वह सत्यता से परे था. पुलिस के जवान समान जाचने के बदले, बाँते करनॆ मॆ मशगुल थे. और तो और कुछ जवान टिकट जाचने मे टीटी साहब को मदद कर रहे थे. उनसे कुछ दुर टैक्सी दलाल यात्रीयो को फांसने मे लगे थे.


जब इतने संवेदनशील जगह सुरक्षा व्यवस्था का यह हाल हैं, तो पुरी दिल्ली की तो बात करना ही बेकार है.

सिलसिलेवार बम धमाकों की जिम्मेदारी लेने वाले और खुद को इंडियन मुजाहिदीन बताने वाले संगठन ने इस तरह के और हमले करने की भी धमकी दी है. ये वही संगठन हैं जिसने पहले जयपुर और उत्तर प्रदेश में हुए विस्फोटों की जिम्मेदारी भी ली थी.

तो आखिर कैसे दिल्ली वासी अपने आप को सुरक्षित समझे???

आतंकवाद और राजनीति

26 जुलाई 2008, स्थान- गुजरात का अहमदाबाद शहर. 17 श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों में कम से कम अठारह व्यक्तियों की मौत, और 100 लोग घायल.

25 जुलाई 2008, स्थान- सूचना प्रौद्योगिक शहर बेंगलुरु. एक घंटे के भीतर हुए आठ विस्फोटों से एक महिला की मौत हो गई थी, जबकि सात लोग घायल हो गए.

आने वाली सुबह पता नही किसके घर के चिराग अपने साथ बुझा ले जायेगी??



अहमदाबाद धमाकों के सुराग माननीय केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल जी के पास हैं, लेकिन देशहित में वे इसे सार्वजनिक नहीं करेंगे. कोई उनसे पुछे आखिर किस देशहित की बात वह कर रहे हैं????



जिस लगन और मेहनत से हमारे राजनीतक आका सरकार गिराने और बचाने की कवायद करते हैं, काश उसकी आधी मेहनत भी देश की सुरक्षा के लिए किया होता. तो आतंकवाद का यह नंगा नाच न होता. आतंकी लगातार अपने मंसूबों में कामयाब न होते.




राजनीतिक रुप से विफल इस देश का सफल नागरिक आतंकवाद की वेदी पे अपनी बली दे रहा हैं. दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढाने वाला यह देश, आज अपने नागरिको को सुरक्षा नही दे पा रहा. हर बार विशेष जाँच दल बनता है, जाँच चलती है, न्यायालय में केस चलता है और धीरे धीरे फिर भूल जाते हैं.



सोचिए, 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई बडा आतंकवादी हमला नहीं हुआ. यहाँ तक कि स्पेन जैसे देश में मेड्रिड धमाकों के बाद कोई हमला नहीं हुआ. हालत यह होने लगी है कि अब आतंकवादी हमले बाढ, चक्रवात और सुखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं जैसे लगने लगे हैं.



हम भारतीय आतंकवाद के खिलाफ लडाई में हार रहे हैं.दूनिया के समक्ष देश की छवि एक कमजोर राष्ट्र की बन रही है. देश के निति निर्धारकों मे ईच्छाशक्ति की कमी है. हम हद से अधिक उदासीन और सहिष्णु हो गए हैं.




हमारा देश सचमुच में एक कमजोर देश हैं. हमारा देश राजनीतिक रुप से एक विफल देश साबित हो रहा हैं, और हम इस देश के सफल नागरिक.

Tuesday, July 22, 2008

अग्निपरीक्षा: आखिर किसकी होगी जीत!

संसद में अभी तक की घटनाक्रम के अनुसार, माननीय बाहुबलि सांसदो के कारण सदन की कार्यवाही 15 मिनट के लिए स्थगित करनी पड़ी. लोकसभा के इतिहास में पहली बार सदन के बीच में नोटों की गड्डियां दिखाई गईं. विपक्ष ने सरकार पर सांसदों की खरीद-फरोख्त का आरोप लगा सबूत पेश किए. मायावती पर सांसदों को बंधक बनाने का आरोप.


लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के उपनेता विजय कुमार मल्होत्रा ने संप्रग सरकार पर विश्वासमत प्रस्ताव हासिल करने के लिए अपराधियों का सहारा लेने का आरोप लगाया. जवाब मे माननीय पप्पु यादव और शहाबुद्दीन ने विरोध प्रकट किया. और सत्तापक्ष के सदस्यों ने हंगामा कर दिया. इसपर अध्यक्ष ने सदन की कार्यवाही पंद्रह मिनट के लिए स्थगित कर दी. मैंने "खबरनामा" मे अपने पिछले पोस्ट में लिखा था, "अवाम की राजनीतक भव्षिय के फैसले मे माननीय सजयाफ्फता संसद सदस्य भी सरीक होंगे. और ये तरुप के इक्के साबित होंगे". यह इस देश के नागरिको की बदकिस्मती हैं.


दुसरी सबसे बङी खबर, लोकसभा के इतिहास में पहली बार सदन के बीच में नोटों की गड्डियां दिखाई गईं। मुरैना से भारतीय जनता पार्टी के सांसद अशोक अर्गल ने अध्यक्ष के आसन के सामने नोटों से भरे बैग खोलने शुरु कर दिए. अर्गल ने आरोप लगाया कि उन पर धन का प्रलोभन देकर विश्वास मत का समर्थन करने का दबाव डाला जा रहा है. सदन में विरोधी पक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया कि एक करोड़ रुपए पेशगी के तौर पे दिये गये थे,जबकि कुल सौदा आठ करोड़ रुपए का था. भाजपा के ही महावीर भगोरा और फग्गन सिंह कुलस्ते ने भी नोटों के बंडल भरे बैग आसन के सामने रखे.


वही दुसरी तरफ समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती पर आरोप लगाया है कि उन्होंने 6 सांसदों को सोमवार से बंधक बनाकर उत्तर प्रदेश भवन में रखा है.


अगर इन घटनाक्रमों की विश्लेशण की जाए,तो यह साफ है कि इस पुरे कवायद में असली मुद्दा कही गौण सा हो गया हैं. बढ़ती महंगाई के इस दौर मे अगर चुनाव थोपा गया, तो यह जनता के लिए
असहनीय होगा.

सदन मे मतदान शाम 7.15 बजे होने की संभावना हैं.

Friday, July 18, 2008

बचेगी सरकार, या लगेगी चुनाव की मार

अग्निपरीक्षा की वेदी सज चुकी हैं, बस इंतजार हैं 22 तारीक की मुहॅत का। अग्निपरीक्षा मे बली तो चढनी ही है। अब देखना है की, यह बली चढती हैं कांग्रेस शासित केंद्र सरकार की,या जनता,या फिर संविधान की मान मर्यादा की। जिस तरह से जादुई आंकाङा पाने के लिए खुलेआम मोलभाव चल रहा हैं,यह एक खराब परंपरा की शुरूआत हैं।


आज पुरी देश की राजनीती, चंद मतलबपरस्त राजनीतिक दलो के इदॅगिदॅ नाच रही हैं। जिनका न तो कोई एजेंडा है, और न इन्हे देश की प्रगति से कोइ वास्ता। इन्हे तो बस क्षेञवाद और जातिवाद की गंदी आग मे अपनी रोटी सेकनी हैं। और वर्तमान राजनीतिक समीकरन इन्हे खाद मुहैया करा रही है।


सरकार बचाने के फेरे मे कही हवाई अड्डे के नाम बदले जा रहे है,तो कही मंत्री पद की पेशकश की जा रही है। और तो और अवाम की राजनीतक भव्षिय के फैसले मे माननीय सजयाफ्फता संसद सदस्य भी सरीक होंगे। और ये तरुप के इक्के साबित होंगे।


सिधांतो की राजनीति संसद के गलियारे मे कही खो गई , और एक नई विचारधारा का उदय हुया। मतलबपरस्त,क्षेञवाद और जातिवाद विचारधारा का उदय।


शायद यह सरकार बच जाये, या न बच पाये। लेकिन एक बात तो साफ हैं, ये संविधान की हार होगी, यह अवाम की हार होगी।


और शायद अवाम इसके लिए तैयार भी हैं।।

Tuesday, July 8, 2008

आह, एक सुंदर सपना टुट गया.

भाई साब, बडे बुजुर्ग सही कहते थे- "बेटा सपना मत देख"। वरना दिल टुट जाएगा, लेकिन नही. जवानी का जोश, उफनता हुआ गरम खून, और मैने भी सपना देख लिया। लेकिन है इस से पहले की आप पाठकगण कुछ गलत सोचे, हम ख़ुद ही बताये देते हैं - यह सुंदर सपना था तेरह साल बाद ऐशिया विजेता बनने का।

लेकिन भाई साब अपने लड़के बडे शिष्टाचारी है, बचपन में सिखाई हर बात याद है इनको, तो फिर ये कैसे भुल जाते। लो भाई खेलेंगे ही नही, बडे बुजु्गों का इज््त भी रह जायेगा, और इन निठ़््लो का सपना देखने का आदत सुधरेगा।


और लो भाई साब, धोनी के रणबुंकारे बडे बुजु्गों की मान रखने के लिए मुँह की खा कर वापस आ गई। लेकिन इऩकी शान में कोई गुस्ताकी नही, लङको ने मेहनत बहुत की। घुङसवारी की, जल कीङा् की, पोङोसियो के साथ मस्ती की...........कितने थक गये हैं बेचारे। अब आप क्या चाहते हो, जान दे दे आप के लिए।

और ये सुधरना सुधारना क्या लगा रखा हैं? इसकी जरुरत तो आप को हैं। जब देखो जीत, क्या हैं, कोई काम नही हैं क्या। या और कोइ खेल नही बचा हैं इस देश मे??? जाओ यार, हाकी और पता नही कितने हजार और खेल बचे हैं इस देश में, कभी उनपर भी नजरें इनायत कर दो। नही तो चाईना में भी मेडल नही मिलेगा।

शाबास नोएडा पुलिस ।

ग्रेटर नोएडा पुलिस ने कुलीसारा चेक पोस्ट के पास छापा मार कर 8कसाई को गिरफ्तार किया, इनपे गोहत्या का आरोप था। पुलिस ने इनके पास से 1ट्रक, और 4गाय बरामाद किया। इस गिरोह ने नोएडा और आस पास के झेञो में पिछले कुछ दिनों से गोहत्या कर के सनसनी फैला दी थी। जिस से नोएडा का सामाजीक सद़भाव बिगर रहा था।

सुरजपुर थाना प्रभारी सुशील दुबे का कहना था की इन औठौ कॆ गिरोह ने पिछलॆ कुछ दिनौ से अवैध गोहत्या कर के तनाव फैला दिया था।

पुलिस ने इने रंगेहाथ हिंङन नदी के किनारे से पकडा,और गोहत्या निरोघक कानुन के अंतर्रगत जेल भेज दिया।

Sunday, July 6, 2008

नशे में खोता बचपन !


'हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया..' आज की पीढी का मूलमंत्र बन गया है । कही धुएं में खो गया है आज का बचपन, मासूमियत सिगरेट, बीड़ी व पान-मसाला के भेट चढ़ गयी हैं। अब स्कूलों के पास चनाचूर, आइसक्रीम........ से जयादा, सिगरेट, बीड़ी व पान-मसाला बिकती हैं।

'18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को सिगरेट पान-मसाला देना प्रतिबंधित है।' लेकिन कहा दिखती है, ये कानून । आज शहर की सड़कों पर खुलेआम 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे सिगरेट का धुआं उड़ा रहे हैं। इनका पालन देश के किसी कोने में नहीं हो रहा। विक्रेता बिना किसी सरोकार के महज अपने जरा से लाभ के लिए बच्चों को सिगरेट, गुटका, पान-मसाला आसानी से बेच रहे हैं। नई पीढ़ी नशे के इस जाल में फंसकर अपने जीवन के मूल उद्देश्य से भटक रही है। इस नशे के आदी हो चुके बच्चे धीरे-धीरे परिवार व समाज से कटते जा रहे हैं।


कई तो इस नशे की दुनिया में इतना आगे निकल चुके हैं कि गुटका व सिगरेट तो महज उनके लिए मामूली नशा है। दवाओं के नशे इनके लिए नयी बिकल्प बनती जा रही हैं। व्हाइट फ्ल्यूड, आयोडेक्स, स्पस्मोप्रोक्सिवं, कोरेक्स, किरोसिन तेल और पता नहीं क्या क्या इन मासूमो के लिए कूल बनता जा रहा हैं।

पैसे की अंधी दौर, सामाजिक ताना बाना का टूटना, एकल परिवार व्यवस्था का आना, व्यस्त अभिभावकों का बच्चो को समय नहीं दे पाना, शायद इस समस्या की जर हैं । बच्चों से नशे का सामान मंगवाना और बच्चों के सामने इसका सेवन करना बच्चों पर काफी बुरा प्रभाव डालता है। नाबालिगों को नशे की इस गर्त में धकेलने के लिए स्कूल भी एक हद तक जिम्मेदार हैं।


कौन है इसके लिए जिम्मेदार ???

हम....... हमारा समाज..........या फिर हमारी व्यवस्था !!!!!



येः वक़्त सोचने का नहीं, कुछ करने का है, वर्ना इस देश की आने वाली पीढी नशे की धुंध में कही खो न जाये ।


Saturday, July 5, 2008

आप करे तो सही, हम करे तो गलत ! "वाह रे धर्मनिरपेक्ष" !!!

कश्मीर में अमरनाथ शाईन बोर्ड को दी गई जमीन आख़िर कार वापस ले ली गई। और यह कोई नई बात नही है, कश्मीर की हालात को ध्यान से देखने वालो के लिए। काफ़ी हो हल्ला हुआ ,हिंसा का नंगा पर्दशन हुआ घाटी में। दलील ये दिया गया की ये हिंदुओ को घाटी मे बसाने और मुस्लिमो को अल्पसंख्यक बनाने की चाल है। अब कोई सवाल नही उठ रहा ही चालिस एकड मे कितने हिंदु बस जायेगे जो सारे कशमीर के मुस्लिमो को अल्पसंख्यक कर देंगे।

अब यहाँ अहम् सवाल ये उठता है की, हिन्दुओ के आस्था की पर्तीक अमरनाथ मंदिर को अगर चालीस एकड जमीन नहीं दी गयी, तो क्या ये धर्मनिरपेक्षता" है?? कश्मीर मे अमरनाथ शाईन बोर्ड को दी गई जमीन जो सिर्फ़ यात्रा के समय यात्रियो को रुकने और उनके लिये स्नानागार एंव शौचालय बनाने के लिये प्रयुक्त होनी थी पर इतना बडा बवाल, कहा तक उचित हैं??

जब कोई बंगलादेशी मुस्लिमो के आने से हिंदूओ के अल्पसंख्यक होने की बात करता है तो ये वोट के सौदागर सत्यता से आंख फ़ेर लेते है। आज देश के हर कोने में लाखों की संख्या में बंगलादेशी रह रहे है। जिस से देश का सामाजिक ताना बना बिगर रहा हैं। देश में बड़ी संख्या में मौजूद अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों से भारत की आंतरिक सुरक्षा को गंभीर खतरा है। गृह मामलों की एक स्थायी संसदीय समिति की संसद में पेश नवीनतम रिपोर्ट में यह कहा गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इसे हल्के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। सुषमा स्वराज की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि भारत-बांग्लादेश सीमा पर जाली नोटों का भी व्यापक वितरण हो रहा है। गृह मंत्रालय की अनुदान मांगों पर समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि समिति पूरी दृढ़ता से सिफारिश करती है कि सीमा पर होने वाली गतिविधियों की कड़ाई से निगरानी की जाए।

वांमपंथी और मानवाधिकार कार्यकर्ताओ इस वक़्त में क्यों चुप हैं । मानवाधिकार कार्यकर्ता और वांमपंथी क्यो नही कभी इस बात को लेकर सरकार को घेरते है।

क्या यही "धर्मनिरपेक्षता" है ???

Thursday, July 3, 2008

अफीम और अफगानिस्तान

अफगानिस्तान तालिबानी शासन के दौरान आतंकवादी गतिविधियों के केन्द्र के रूप मे कुख्यात रहा था. तालिबानी शासन के खात्मे के बाद भी अफगानिस्तान मे अल कायदा के आतंकवादियों की सक्रीय भूमिका रही है.

इसके अलावा अफगानिस्तान सदा से अफीम के उत्पादन और तस्करी के लिए भी कुख्यात रहा है. इस वजह से अफगानिस्तान सयुंक्त राष्ट्र संघ मे गैरकानूनी राष्ट्रों की सूचि मे शामिल है. अफगानिस्तान मे अफीम के उत्पादन और उसकी तस्करी से सम्बंधित कुछ तथ्य:

*दूनिया मे अफीम के कुल उत्पादन का 95% हिस्सा केवल अफगानिस्तान मे उगाया जाता है.

*अधिकतर अफीम के खेत तालिबानी लडाकों के कब्जे में रहे हैं.

*तालिबानी लडाके अफीम की तस्करी से प्राप्त आय का उपयोग शस्त्र खरीदने मे करते हैं.


*अफीम का सबसे बडा खरीददार देश अमरीका है.


*अफीम एक नशीला पदार्थ है, परंतु उसका उपयोग दवाई, अल्कोहोल मे भी होता है.


*अफगानिस्तान मे अफीम उगाने वाले किसान को प्रति किलो अफीम के बदले करीब 300 डॉलर मिलते हैं.


*यही अफीम अफगानिस्तान के बाहर 800 डॉलर प्रति किलो के भाव से बिकता है.


*यूरोपीय देशों मे अफीम के द्वारा हेरोइन नामक नशीला पदार्थ बनने के बाद इसकी किमत 16000 डॉलर प्रति किलो तक पहुँच जाती है.


*अफगानिस्तान मे सन 2006 मे 6630 टन अफीम का उत्पादन हुआ था .


source: Google

तरबूज होता है प्राकृतिक वायग्रा

हिन्दी में तरबूज, बंगाली में तोर्मुज, गुजराती में इन्द्रकिन और कन्नड़ में खरबूजा। यह तो हम सब को पता है, लेकिन क्या आप जानते है - तरबूज होता है प्राकृतिक वायग्रा।

तरबूज मात्र एक स्वादिष्ट एवं पानी से भरपूर त्वरित उर्जा देने वाला फल ही नहीं होता है बल्कि यह गुणों से भरपूर भी है। और अब एक भारतीय अमरीकी वैज्ञानिक ने दावा किया है कि तरबूज वायग्रा के जैसा असर भी पैदा करता है।

टेक्सास के फ्रुट एंड वेजीटेबल इम्प्रूवमेंट सेंटर के वैज्ञानिक डॉ भिमु पाटिल के अनुसार,"जितना हम तरबूज के बारे में शोध करते जाते हैं, उतना ही और अधिक जान पाते हैं। यह फल गुणो की खान है और शरीर के लिए वरदान स्वरूप है."

तरबूज में सिट्रुलिन नामक न्यूट्रिन होता है जो शरीर में जाने के बाद अर्जीनाइन में बदल जाता है। अर्जीनाइन एक एम्यूनो इसिड होता है जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाता है और खून का परिभ्रमण सुदृढ रखता है।

यह मोटापे और मधुमेह को भी रोकने का कार्य करता है।

अर्जीनाइन नाइट्रिक ऑक्साइड को बढावा देता है, जिससे रक्त धमनियों को आराम मिलता है। यह कुछ कुछ वायग्रा जैसा ही कार्य करता है. इस प्रकार से इसे प्राकृतिक वायाग्रा कहा जा सकता है.

हालाँकि इससे वायग्रा जितना असर तो नहीं होता लेकिन कोई साइड इफैक्ट भी नहीं होता.

source- Times Of India

Tuesday, July 1, 2008

बेलगाम आतंकवाद! क्या भारत एक कमजोर देश है?

दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, वाराणसी, मालेगाँव, अजमेर, लखनऊ, इलाहाबाद, जयपूर...

यह सूचि इससे भी बडी है, और आने वाले समय में काफी लम्बी हो सकती है। इन सभी जगहों पर सुनियोजित तरीके से आतंकवादी हमले किए गए। बम विस्फोट करवाए गए और सैंकडों लोगों की जानें गई। हर बार विशेष जाँच दल बनता है, जाँच चलती है, न्यायालय में केस चलता है और धीरे धीरे फिर भूल जाते हैं। तब तक जब तक की कोई नया विस्फोट नहीं हो हो जाता है। हालत यह होने लगी है कि अब आतंकवादी हमले बाढ, चक्रवात और सुखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं जैसे लगने लगे हैं। अब इनकी आदत सी होने लगी है. क्या यही हमारी नियति है? सोचिए, 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई बडा आतंकवादी हमला नहीं हुआ. यहाँ तक कि स्पेन जैसे देश में मेड्रिड धमाकों के बाद कोई हमला नहीं हुआ।

तो फिर भारत में ही क्यों?

क्या हम भारतीय आतंकवाद के खिलाफ लडाई में हार रहे हैं।

दूनिया के समक्ष देश की छवि एक कमजोर राष्ट्र की क्यों बन रही है?

क्या देश के निति निर्धारकों मे ईच्छाशक्ति की कमी है?

क्या हम हद से अधिक उदासीन और सहिष्णु हो गए हैं?

क्या हमारा देश सचमुच में एक कमजोर देश हैं?

यदि हाँ तो इसके उपाय क्या हैं, यदि नहीं तो आखिर चूक कहाँ हो रही है?

Monday, June 30, 2008

फोर्ब्स वैश्विक रैंकिंग में भारत फिसला

मुद्रास्फीति और सरकार एवं उसके वामपंथी सहयोगियों के बीच मतभेद के कारण कम हुए निवेशकों के भरोसे के कारण कारोबारी माहौल के लिहाज से 121 देशों की सूची में भारत 12 अंक फिसलकर 64वें पायदान पर आ गया है।

फोर्ब्स द्वारा तैयार कारोबार के लिए सर्वश्रेष्ठ देशों की सूची में भारत 51वें पायदान से लुढ़क गया है, जबकि चीन पिछले साल के मुकाबले दो पायदान नीचे 79वें स्थान पर आ गया।इस सूची में डेनमार्क ने सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया है और पिछले साल के मुकाबले तीन पायदान ऊपर चढ़ा है, जिसके बाद आयरलैंड और फिनलैंड का स्थान है।

फोर्ब्स ने अपनी एक रपट में कहा कि भारत और चीन में राजनीतिक अस्थिरता के वैयक्तिक स्वतंत्रता के आड़े आने के कारण इस साल उनकी रैंकिंग गिरी है। खाद्य पदार्थों एवं अन्य जिंसों में मुद्रास्फीति और उद्यमियों पर बढ़ते दबाव ने भी विश्व के दो सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों को कारोबारी गंतव्य के तौर पर पीछे धकेल दिया।

डेनमार्क पिछले साल के मुकाबले तीन स्थान ऊपर ऑयरलैंड 19 स्थान ऊपर चढ़कर दूसरे नंबर पर फिनलैंड चार स्थान ऊपर चढ़कर तीसरे नंबर पर अमेरिका तीसरे स्थान से फिसलकर चौथे नंबर पर और ब्रिटेन पाँचवें नंबर पर है।

आयरलैंड की ही तरह एस्तोनिया 24 स्थान ऊपर चढ़कर 10वें नंबर और सऊदी अरब 37 स्थान छलाँग कर 47वें नंबर पर पहुँच गया है।हालाँकि विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका एक अंक फिसल कर चौथे नंबर पहुँच गया है, जबकि एक अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्था ब्रिटेन ने अपना पाँचवाँ स्थान बरकरार रखा है।

फोर्ब्स ने कहा कि भारत सरकार ने विदेशी कारोबार और निवेश पर नियंत्रण कम कर दिया है। रपट में कहा गया कि सरकारी कंपनियों का निजीकरण रूका हुआ है और इस पर राजनैतिक बहस जारी है। संप्रग सरकार के आंतरिक और वामपंथी सहयोगियों के दबावों कारण आवश्यक पहल रुकी हुई है।फोर्ब्स ने कहा कि बढ़ती जनसंख्या बुनियादी सामाजिक आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याएँ हैं।

Saturday, June 28, 2008

अब एशिया कप दूर नहीं

बांग्लादेश पर भारी जीत ने यह उम्मीद फिर से जगा दी है की हम 13 साल बाद एशिया कप विजेता बनंगे। भारत ने राह में आने बाले सारे कांटे को रोंधते हुए लगातार तीसरी जीत हासिल की है।

बांग्लादेश ने टॉस जीत कर पहले बलेबाजी का फैसला किया, अलोक कपाली के 96 गेंद में 115 रन ने इश फैसले को एक हद तक सही घोषित किया और बांग्लादेश ने 50 ओवर में 283 रन बनाये। तम्मिम इकबाल ने 55 रन बनाये.

जबाब में भारत ने उत्थपा का विकेट जल्दी खो दिया. लेकिन गंभीर और रैना के आतिशी पारी ने बांग्लादेश को सँभालने नहीं दिया. गंभीर ने 84 बाल में 90 रन बनाये, वही रैना ने अपने जबरदस्त फॉर्म को कायम रखते हुए 107 बाल में 116 रन बनाये. रैना को प्लेयर ऑफ़ द मैच घोषित किया गया.

आउटसोर्सिग के क्षेत्र में भारतीय आगे

आउटसोर्सिग कारोबार के मामले में भारत का दबदबा बढ़ता ही जा रहा है। आलम यह है कि आउटसोर्सिग का कारोबार करने वाले दुनिया के सात अरबपतियों में से पांच भारतीय हैं।
फोर्ब्स पत्रिका की ताजा सूची में आउटसोर्सिग का कारोबार करने वाले पांच अरबपति भारतीयों में से तीन एन। आर। नारायणमूर्ति, नंदन निलकेनी और सेनापति गोपालकृष्णन सॉफ्टवेयर क्षेत्र की मशहूर भारतीय कंपनी इंफोसिस टेक्नोलोजी के हैं।

अन्य दो व्यवसायी विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी और एचसीएल टेक्नोलोजीज के शिव नाडार हैं।फोर्ब्स ने अपने सर्वेक्षण में पाया है कि इन पांचो भारतीय व्यवसायियों ने वैश्विक स्तर पर सॉफ्टवेयर और सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित सेवाएं मुहैया कराकर अरबों डालर कमाए हैं।

इन पांच भारतीय व्यवसायियों के अलावा आउटसोर्सिग का कारोबार करने वाले अन्य दो व्यवसायी टेरी गू और बैरी लैम हैं। ये दोनों व्यवसायी ताईवान के हैं जिनकी कंपनियां इलेक्ट्रोनिक क्षेत्र में अनुबंध आधारित कारोबार करती हैं।

बाल ठाकरे भी उत्तर भारतीय!

'शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के पिताजी खुद रोजी-रोटी की तलाश में मध्यप्रदेश से महाराष्ट्र आए थे, इसलिए उनके परिवार को मुंबई में आजीविका की तलाश में आने वाले किसी भी व्यक्ति की पिटाई करने का हक नहीं है।

'यह दावा पुणे विश्वविद्यालय की महात्मा फुले पीठ के चेयरमैन और आम्बेडकर के बारे में गहरे जानकार प्रोफेसर हरि नार्के ने राकांपा के मुखपत्र 'राष्ट्रवादी' में प्रकाशित अपने लेख में किया है। गौरतलब है कि राकांपा के प्रमुख शरद पवार शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के मित्र हैं। नार्के ने इस लेख में मनसे प्रमुख राज ठाकरे द्वारा उत्तर भारतीयों के खिलाफ जारी हमलों की कड़ी आलोचना की है।

उन्होंने कहा कि मनसे प्रमुख राज ठाकरे को अपने दादा यानी कि बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकर ठाकरे की आत्मकथा पढ़नी चाहिए। प्रबोधनकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने मध्यप्रदेश में अपनी पढ़ाई की और फिर वे आजीविका के लिए कई राज्यों में घूमे। नार्के ने कहा कि इस आत्मकथा से साबित होता है कि मुंबई को अपनी बपौती समझने वाला ठाकरे परिवार मुंबई का मूल निवासी नहीं हैे।

लेख में कहा गया है कि प्रबोधनकर ठाकरे का साहित्य संयोग से 1995 में महाराष्ट्र सरकार ने नार्के की इजाजत से ही प्रकाशित करवाया था। नार्के ने सवाल उठाया है कि जो लोग दो पीढ़ियों पहले रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई आए उन्हें मुंबई में काम की तलाश में आने वालों की पिटाई का हक किसने दिया? नार्के ने कटाक्ष करते हुए कहा है कि जो लोग 24 घंटे इतिहास में डूबे रहते हैं वे भला सिर्फ दो पीढ़ी पहले के इतिहास को कैसे भूल सकते हैं।
सोर्स: भाषा,

कांग्रेस का हाथ, गरीब के पेट पे लात

मस्त राम मस्ती में, आग लगे बस्ती में।
जी है यही हाल है कांग्रेस शासित केन्द्र सरकार की।

मुद्रास्फीति की दर 14 जून को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान बढ़कर 11.42 फीसदी पर पहुँच गई, जो इससे पूर्व सप्ताह के दौरान 11.05 फीसदी थी। समीक्षाधीन सप्ताह में ल्यूब्रिकेंट की कीमत 19 फीसदी बढ़ गई। इस दौरान सूरजमुखी तेल की कीमत 4 फीसदी बढ़ी। खली और हाइड्रोजेनेट वनस्पति की कीमत 2-2 फीसदी बढ़ी। जबकि आयातित खाद्य तेल और नमक और सरसों तेल की कीमत 1-1 फीसदी चढ़ गया।


जनता मुद्रास्फीति की इश मार से परेशान है, और एक यह सरकार है की अपनी कुर्सी बचाने के लिए कभी लेफ्ट, तो कभी मुलयाम के दरवाजे खटखटा रही है। आज जब देश मंहगाए के गोद में त्राहि त्राहि कर रही है, तब केंद्र सरकार के लिए नुक्लेअर डील जयादा जरूरी है।

कांग्रेस और मंहगाए का चोली दामन का साथ है।
कही इसके लिए कांग्रेस की नीत्ति तो जिमेदार नहीं ?


 

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