देश की वित्तीय राजधानी मुबंई में आखिरकार आतंक का नंगा नाच जंबाज सिपाहियों के बलिदान के बुते समाप्त हो गया। लेकिन कोलाबा के लियोपोल्ड रेस्तराँ से शुरू हुआ आतंक का यह नंगा नाच अपने पीछे कई ज्वलंत सवाल छोड़ गया हैं। सबसे बड़ा सवाल आखिर यह तांडव कब तक ? आज देश अपने हुक्ममरानों से पूछता हैं आखिर आतंकवाद के बेदी पर और कितने बलिदान देगा हिंदुस्तान ? कितने हेमंत करकरे,मेजर संदीप उन्नीकृष्णन और गजेंद्र सिंह को पूरे राजकीय सम्मान के साथ भावभीनी श्रद्धांजलि दी जायेगी ? आखिर क्यों 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई बडा आतंकवादी हमला नहीं हुआ ? क्या सही मायने में हम आतंकवाद के खिलाफ लडाई में हार रहे हैं ? अगर हाँ, तो जिम्मेदारी किसकी ?
आतंकवादी हमेशा एक नये तरीके से अपने कारनामों को अंजाम दे रहा हैं। लेकिन तमाम वादों,कसमों और दावों के बावजूद परिणाम वहीं ढाक के तीन पात आ रहे हैं। अगर पिछ्ले कुछ आतंकवादी हमलों का विश्लेषण किया जाये, तो एक खास पैटर्न का इस्तेमाल देखने को मिलता था। लेकिन मुबंई में उसे नहीं अपनाया गया। इतना ज्यादा गोला-बारुद हमले के वक्त़ एक बार में होटल के अंदर ले जाना नामुमकिन था। तो क्या इसे पहले से होटल के अंदर जमा किया जा रहा था ? अगर हाँ, तो क्या इसे खुफ़िया तंत्र और होटल प्रशासन की लापरवही मानी जाये ? आतंकी जिस तरह से पुलिस की गाड़ी लेकर मुबंई की सड़कों पर भागे, उससे लगता था कि वे मुबंई की सड़कों से अनजान नहीं थे। तो क्या सचमुच आतंकी विदेशी थे ? या फ़िर इनके साथ कुछ स्थानीय नुमांईदे भी थे ? या ये विदेशी आतंकी पहले से मुबंई मे डेरा जमा रखे थे ? यहाँ फिर खुफ़िया तंत्र की नकामी नज़र आ रही हैं।
हमेशा की तरह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने इस हमले में विदेशी हाथ होने का दावा किया हैं। माननीय प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के पास इसके समर्थन में क्या सबुत हैं ? और अगर सबुत हैं,तो आखिर कितने बलिदानों का इंतजार हैं माननीय प्रधानमंत्री और गृहमंत्रीजी को ? मेरे पहुँचने से डर कर भाग गये आतंकी। क्या यह बयान किसी भी मुल्क के गृहमंत्री उन हालातों के बीच दे सकता हैं ? पाटिल साब अगर सचमुच आपके डर से आतंकी भाग खड़े हुये, तो कामा अस्पताल के साथ-साथ आपको ताज होटल, ओबेरॉय होटल और नरीमन हाउस भी जाना चाहिये था। अगर आप ऐसा करते तो शायद जान-माल की इतनी क्षति नहीं उठानी पड़ती।
पाटिल साब, इतनी मांगों के बावज़ूद आखिर क्यों एक आतंकवाद निरोधक केंद्रीय एजेंसी नहीं बनायी जा रहीं ? आखिर क्यों आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई को भी राज्यों के भरोसे छोर दिया गया हैं ?
अब जनता हिसाब मांगना शुरू कर चुकी हैं, और अब हुक्ममरानों को जबाब देने के लिये तैयार हो जाना चाहिये। देश के नागरिकों की जान की कीमत चंद सिक्कों में नहीं तोली जा सकती। और न हमारी मौत का फ़ैसला सीमापार बैठे कुछ कायर कर सकते हैं। भारत के सरजमीं पर आये हर सैलानी यहाँ के मेहमान हैं, कसम उन जानों की यह तांडव और नहीं।
अब यह अवाम पूछता हैं हुक्ममरानों से आखिर यह तांडव कब तक ?
Sumit K Jha(सुमीत के झा)
www.nrainews.com
Saturday, November 29, 2008
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1 comments:
जब तक जनता ना जगे,ना बदले यह तन्त्र.
तब तक पङेगा भोगना,बङा दुष्ट यह तन्त्र.
बङा दुष्ट यह तन्त्र,न्याय-कानून इसीका.
संविधान और यु.एन.ओ.,दे साथ इसी का.
पर साधक, सबका उत्तर दे सकती जनता.
ना बदले यह तन्त्र, ना जगे जब तक जनता.
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