* लोकतंत्र के महापर्व में वाक्-चलीसा * आखिर क्यों फ़ेंका जरनैल सिंह ने जूता ? * लोकतंत्र का महापर्व और "कुछ ख्वाहिश" * "कश्मीरी पंडित" होने का दर्द * राजनेताओं हो जाओ सावधान, जाग रहा हैं हिंदुस्तान * जागो! क्योंकि देश मौत की नींद सो रहा हैं। * आखिर यह तांडव कब तक? * पाकिस्तानियों में अमेरिकी नीति का खौफ * खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह गया दादा * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 04 * क्या इसे आतंकवाद न माना जाये ? * कही कश्मीर नहीं बन जाये "असम" * जेहाद या आतंकवाद का फसाद * बेबस हिन्दुस्तान, जनता परेशान, बेखबर हुक्मरान * ‘आतंकवाद की नर्सरी’ बनता आजमगढ़ * आतंकवाद का नया रूप * आतंकवाद और राजनीति *

Friday, October 31, 2008

देश ने भुलाया प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल को

राष्ट्र ने भुला दिया लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिन को। भारत की स्वतंत्रता संग्राम मे मह्त्वपूर्ण योगदान देने वाले लौह पुरूष के जन्मदिन पर नहीं तो कोई सरकारी कार्यक्रम आयोजित हुई, और नहीं कोई विज्ञापन। भारत के एकीकरण में सरदार वल्लभ भाई पटेल की योगदान को भुलाया नही जा सकता।

नडियाद, गुजरात में झवेरभाई पटेल एवं लदबा के घर 31 अक्तूबर, 1875 को बल्लभभाई पटेल का जन्म हुआ था। बल्लभभाई पटेल के माता-पिता कृषक थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बडा योगदान खेडा संघर्ष में हुआ। लेकिन सरदार पटेल को लौह पुरूष के रूप मे स्थापित किया, देसी रियासतों के एकीकरण का उनका अभियान। भारत के 562 रजवाड़ो को भारत के संघराज्य में विलीन होने के लिए मजबूर कर दिया था, गुजरात के इस शेर ने।

लेकिन विडम्बना यह है कि आज उनके जन्म दिवस को उतना महत्व नहीं दिया जाता। हमेशा देश को अपनी महत्वाकांक्षा से बडा समझने वाली मनोवृति के इस लौह पुरूष को आज सरकार के साथ-साथ आम जनता भी भुला रही हैं। सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत रत्न जैसा सम्मान इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के भी बाद मिला। यह दुर्भाग्य नही तो और क्या हैं ?

सुमीत के झा (sumit k jha)
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Thursday, October 30, 2008

मुंबई मेरी जान ! आखिर किसकी ?

मुंबई में उत्तर भारतियों पर बढ़ते हमलों के बीच एक सवाल, आखिर किसकी है मुंबई ? हिन्दुस्तान की, महाराष्ट्र की, या फिर ठाकरे परिवार की ? मुंबा देवी के इस नगरी को किसकी नज़र लग गयी। किसने घोल दिया इतना जहर ?

देश में कहीं भी आने-जाने, रहने का संवैधानिक अधिकार सभी को प्राप्त हैं। फिर यह आरजकता क्यों ? कानून व्यवस्था को धत्ता बताते हुए, बार-बार मुंबई में उत्तर भारतियों पर हमले हो रहे हैं। "मराठी मानुष" और "हिन्दी भाषी" के बीच एक नफ़रत कि खाईं आ गयी हैं। नफ़रत के गरम आँच पर सियासतदानों ने राजनितिक रोटी सेंकनी शुरू कर दी हैं। मुंबई से शुरु हुई यह आग पटना के रास्ते दिल्ली तक आ गयी। और शायद यह आग आगे भी अपना रंग दिखायेगी।

मुंबई में नफ़रत के गुंडागर्दी में मुख्यत: सब्जी भाजी वाले, ढूध वाले, इस्त्री वाले, आटा चक्की वाले, भेल पुरी वाले,टैक्सी ऑटो वाले पिस रहे हैं। ये छोटे मोटे काम धंधों में लगे हुए कर्मठ लोग हैं। ये असंगठित हैं, इसिलिये निशाने पर हैं। मुंबई महानगर वाणिज्यिक एवं मनोरंजन केन्द्र होने के कारण काम खोजने वालों की खान बन चुकि हैं। लेकिन इनमे सिर्फ़ "भैया' लोग ही नही होते। रेलों में ठुंसकर स्वप्ननगरी आने वालों में केरल, बंगाल, गुजरात और पूरे देश के लोग होते हैं। लेकिन निशाने पर उत्तर भारतीय ही हैं, क्योंकि वे बदनाम ज्यादा हैं।मुंबई के विकास और उसे भारत की आर्थिक राजधानी बनाने में बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों का भी खून पसीना लगा है। ठाकरे परिवार इस बात को भूल रहा है कि आर्थिक राजधानी होने के कारण मुंबई में सभी को रोजगार पाने और वहां आने-जाने का संवैधानिक अधिकार है।

वक्त आ गया हैं कि राजनिती को "राज"निती से अलग किया जाये। राज ठाकरे को आगे बढ़ाने में कांग्रेस पार्टी का हाथ हैं। शिवसेना को रोकने के लिये कांग्रेस ने राज ठाकरे की "राज"निती को बढावा दिया हैं। राजनितीक दलों को तुष्टिकरण की नित्ती त्यागनी होगी। सियासतदानों को अपने इलाके में रोजगार के अवसर देने होंगें, ताकि उत्तर भारतियों को मुंबई की ख़ाक छानने न आना परे। और यह देश के सामाजिक ताने-वाने के लिए जरूरी हैं।

भूमंडलीकरण के इस दौर में, जब पूरी दुनिया एक गाँव बन गयी हैं, तब "मराठी मानुष" और "हिन्दी भाषी" की बात करना बेमानी हैं। जरूरत हैं देश को जोड़ने की, ना कि तोड़ने की। मुंबई न तो "मराठी मानुष" की हैं और न "हिन्दी भाषी" भैया लोगों की। मुंबई मेरी हैं, आपकी हैं, हम सब की हैं। मुंबई पूरे हिन्दुस्तान की जान हैं।

by: सुमीत के झा (sumit k jha)
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Monday, October 27, 2008

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं




"खबरनामा" की और से आप सब को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ! ! !

माँ लक्ष्मी आप सभी को अपनी आशिष प्रदान करे ! ! !
by: सुमीत के झा (sumit k jha)

राहुल की मुठभेड़ या हत्या

सोमवार कि सुबह मुंबई के कुर्ला इलाके में बस नंबर 332 को अपहृत करने वाला पटना के 23 वर्षीय राहुल राज की मुंबई पुलिस ने एनकाउंटर किया या फिर निर्मम हत्या ? राज ठाकरे को मारने आया यह शक्स पुलिस की गोली से मारा गया था। लेकिन पुलिसिया एनकाउंटर एक बार फिर शक के घेरे में आ रही हैं। क्या सचमुच राहुल राज को नही बचाया जा सकता था ?

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार राहुल चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि वह किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। उसने बस से सभी यात्रियों को उतार भी दिया था। बस खड़ी होने के बाद वहां काफी भीड़ थी, अगर वह चाहता तो लोगों पर फायरिंग कर सकता था। मुंबई पुलिस का यह दावा कि राहुल पर गोलीबारी जवाबी कार्रवाई के तहत की गई, सच नही लग रही। चश्मदीदों के अनुसार उसने अपनी देसी पिस्तौल से एक बार भी पुलिस की ओर फायर नहीं किया था। अगर मुंबई पुलिस ने थोड़ी-सी समझदारी से काम ली होती, तो शायद राहुल बच सकता था। वह बार बार एक मोबाइल मांग रहा था जिसके मार्फत वह अपनी बात कहना चाहता था। उसने कुछ करेंसी नोट पर लिखकर पुलिस की ओर भी फेंकी थी।

अगर राहुल राज ठाकरे को मारने आया था, तो उसे राज ठाकरे के घर के आसपास होना चाहिए था। अगर वह राज ठाकरे के किसी सभा में पिस्टल या बम के साथ पकड़ा जाता तो भरोसा किया जा सकता था। लेकिन राहुल को बेस्ट की एक बस को यात्रियों से खाली करवाकर पिस्तौल लहराने कि क्या जरूरत पर गयी ? क्या वह अपनी बात को राज ठाकरे, मुम्बई की जनता और मीडिया तक पहुचाना चाह्ता था ?

राहुल के पिता ने कहा कि उनका बेटा अपराधी नहीं हैं। उनका आरोप है कि उनके बेटे की सरेआम हत्या की गई है। बिहार के तीन कट्टर विरोधी नेता, रेल मंत्री लालू यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लोकजनशक्ति के नेता राम विलास पासवान ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मांग की कि मुंबई में राहुल की मुठभेड़ में हुई मौत की न्यायिक जांच कराई जाए। इस बीच गृह राज्य मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने कहा कि केंद्र ने राज्य से इस पूरे मामले में रिपोर्ट मांगी है।

राहुल ने अपराध किया था। और उसे सजा भी मिलनी चाहिए थी। लेकिन क्या उसका अपराध इतना संगीन था कि उसे सजा-ए-मौत दी जाए ?

by: सुमीत के झा (sumit k jha)

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Friday, October 24, 2008

बिहार में बवाल, आखिर किस से करे सवाल ?

मुंबई में उत्‍तर भारतीय छात्रों के ऊपर राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के हमले के विरोध में लगातार तीन दिनों से बिहार जल रहा हैं। और इसका असर बिहार से बाहर एवं बिहार के भीतर चलने वाली अधिकतर ट्रेनों पर देखी जा सकती हैं। पूर्व मध्य रेलवे के तहत चलने वाली 38 ट्रेनें रद्द कर दी गयी। देश के कई हिस्‍सों में लाखों यात्री फसे पड़े हैं।


बिहार में हाल फिलहाल में ऐसा उग्र प्रदर्शन देखने को नहीं मिला था। बिहार के छात्रों के साथ बद्सुलुकी कोई नयी बात नहीं हैं। पहले भी मुंबई में छात्रों के साथ जमकर गुंडागर्दी हुई हैं। तो आखिर यह बवाल इस बार क्यों ? क्या बिहार के युवाओं ने सियासतदानों से हिसाब मांगना शुरू कर दिया हैं ? बिहार के युवाओं का ये गुस्सा आखिर किस पर है- राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, शिव सेना, बिहार के रहनुमाओं या फिर अपने आप पे।


कभी दुनिया भर में शिक्षा की अलख जगाने वाला यह बिहार आखिर क्यों अपने छात्रों को देश भर में नौकरी की तलाश में भटकने को विवश कर रहा है? क्या गंगा की भूमि इतनी उज्जड हो गयी है की अपने पूजने वालो की पेट भी नहीं भर सकती ?


इन सवालों का जवाब बिहार के गर्त में ही दबा पड़ा हैं। लंबे समय से बदहाली का जीवन गुज़ार रहे बिहार के युवाओं को इस घटना ने दफ़न हो चुके बुनियादी मुद्दों को सतह पर लाने का मौका दिया हैं। सूबे के रहनुमाओं ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए यहाँ के भविष्य के साथ सिर्फ खिलवार किया हैं। कभी जातिवाद के नाम पे तो कभी नक्सलवाद के नाम पे, हमेशा लड़ना सिखाया। विकास की बात कभी नहीं की गयी, तो विकास की राजनीति की तो सोच ही बेमानी हैं।

बिहार गंगा के पूर्वी मैदान मे स्थित है। बिहार की भूमि मुख्यतः नदियों के मैदान एवं कृषियोग्य समतल भूभाग है। और यहाँ के किसानों ने अपने खून पसीनों से पंजाब के खेतों को हराभरा किया। है।प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ के कारण यहाँ के खेत बहुत उपजाउ हो सकते थे। परन्तु इसी बाढ़ के कारण यह क्षेत्र तबाही के कगार पर खड़ा है। हाजीपुर का केला एवं मुजफ्फरपुर की लीची पूरे देश में मशहूर हैं, और यह एक कुटीर उद्योग बन सकता हैं। लेकिन कभी इसके लिए इमानदार कोशिश नहीं की गयी। मखाना की पैदावार बिहार के दरभंगा एवं मधुबनी जिले में होती हैं, लेकिन शायद ही इसके खेती आगे बढाया गया हो। मधुबनी चित्रकला भी एक अच्छा कुटीर उद्योग साबित हो सकता था। पटना,दरभंगा,राजगृह,बोधगया,विक्रमशिला,अरेराज और चंपारण दर्शनीय स्थल हैं, जो रोजगार का जरिया बन सकता था।

अगर बात शिक्षा की करे तो एक समय बिहार शिक्षा के प्रमुख केन्द्रों में से एक माना जाता था लेकिन शैक्षणिक संस्थानों में राजनीति तथा अकर्मण्यता के प्रवेश करने से शिक्षा के स्तर में गिरावट आई गयी। तकनीकी शिक्षण संस्थानों की कमी ने यहाँ के छात्रों को पलायान करने पर विवश किया। उद्योग धंधो की कमी ने फिर इन्हें वापस आने नहीं दिया।

सूबे के सियासतदानों ने कभी बिहार को आगे बढाने के लिए इमानदार कोशिश नहीं की, और मुंबई के बहाने बिहार के युवाओं ने इसका हिसाब माँगना शुरु कर दिया हैं। ये गुस्सा न तो राज ठाकरे के लिए है और न शिव सेना के लिए। यह गुस्सा है अपनी लाचारी पर। यह गुस्सा है बिहार के रहनुमाओं पर। और शायद इसकी जरूरत बिहार और बिहारी अस्मिता के लिए जरूरी था।

सुमीत के झा(sumit k jha)
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सुशील प्रकरण : वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन

एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की। इस बैठक में हिंदी के कई वेब संपादक-संचालक, वेब पत्रकार, ब्लाग माडरेटर और सोशल-पोलिटिकिल एक्टीविस्ट मौजूद थे। अध्यक्षता मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने की। संचालन विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने किया। बैठक के अंत में सर्वसम्मति से तीन सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया। पहले प्रस्ताव में एचटी मीडिया के कुछ लोगों और पुलिस की मिलीभगत से वरिष्ठ पत्रकार सुशील को इरादतन परेशान करने के खिलाफ आंदोलन के लिए वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन किया गया।


इस समिति का संयोजक मशहूर पत्रकार आलोक तोमर को बनाया गया। समिति के सदस्यों में बिच्छू डाट काम के संपादक अवधेश बजाज, प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेंदु दाधीच, गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा, तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय संगठक गोपाल राय, विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी, लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार, मीडिया खबर डाट काम के संपादक पुष्कर पुष्प, भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह शामिल हैं। यह समिति एचटी मीडिया और पुलिस के सांठगांठ से सुशील कुमार सिंह को परेशान किए जाने के खिलाफ संघर्ष करेगी। समिति ने संघर्ष के लिए हर तरह का विकल्प खुला रखा है।


दूसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को परेशान करने के खिलाफ संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल अपनी बात ज्ञापन के जरिए एचटी मीडिया समूह चेयरपर्सन शोभना भरतिया तक पहुंचाएगा। शोभना भरतिया के यहां से अगर न्याय नहीं मिलता है तो दूसरे चरण में प्रतिनिधिमंडल गृहमंत्री शिवराज पाटिल और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से मिलकर पूरे प्रकरण से अवगत कराते हुए वरिष्ठ पत्रकार को फंसाने की साजिश का भंडाफोड़ करेगा। तीसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि सभी पत्रकार संगठनों से इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए संपर्क किया जाएगा और एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के खिलाफ सीधी कार्यवाही की जाएगी।


बैठक में प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेन्दु दाधीच का मानना था कि मीडिया संस्थानों में डेडलाइन के दबाव में संपादकीय गलतियां होना एक आम बात है। उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए जाने की जरूरत नहीं है। बीबीसी, सीएनएन और ब्लूमबर्ग जैसे संस्थानों में भी हाल ही में बड़ी गलतियां हुई हैं। यदि किसी ब्लॉग या वेबसाइट पर उन्हें उजागर किया जाता है तो उसे स्पोर्ट्समैन स्पिरिट के साथ लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि संबंधित वेब मीडिया संस्थान के पास अपनी खबर को प्रकाशित करने का पुख्ता आधार है और समाचार के प्रकाशन के पीछे कोई दुराग्रह नहीं है तो इसमें पुलिस के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने संबंधित प्रकाशन संस्थान से इस मामले को तूल न देने और अभिव्यक्ति के अधिकार का सम्मान करने की अपील की।


भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह ने कहा कि अब समय आ गया है जब वेब माध्यमों से जुड़े लोग अपना एक संगठन बनाएं। तभी इस तरह के अलोकतांत्रिक हमलों का मुकाबला किया जा सकता है। यह किसी सुशील कुमार का मामला नहीं बल्कि यह मीडिया की आजादी पर मीडिया मठाधीशों द्वारा किए गए हमले का मामला है। ये हमले भविष्य में और बढ़ेंगे।


विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने कहा- ''पहली बार वेब मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों मीडिया माध्यमों पर आलोचक की भूमिका में काम कर रहा है। इसके दूरगामी और सार्थक परिणाम निकलेंगे। इस आलोचना को स्वीकार करने की बजाय वेब माध्यमों पर इस तरह से हमला बोलना मीडिया समूहों की कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है। उनका यह दावा भी झूठ हो जाता है कि वे अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार हैं।


''लखनऊ से फोन पर वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कई पत्रकार पुलिस के निशाने पर आ चुके हैं। लखीमपुर में पत्रकार समीउद्दीन नीलू के खिलाफ तत्कालीन एसपी ने न सिर्फ फर्जी मामला दर्ज कराया बल्कि वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत उसे गिरफ्तार भी करवा दिया। इस मुद्दे को लेकर मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश पुलिस को आड़े हाथों लिया था। इसके अलावा मुजफ्फरनगर में वरिष्ठ पत्रकार मेहरूद्दीन खान भी साजिश के चलते जेल भेज दिए गए थे। यह मामला जब संसद में उठा तो शासन-प्रशासन की नींद खुली। वेबसाइट के गपशप जैसे कालम को लेकर अब सुशील कुमार सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना दुर्भाग्यपूर्ण है।

यह बात अलग है कि पूरे मामले में किसी का भी कहीं जिक्र नहीं किया गया है।बिच्छू डाट के संपादक अवधेश बजाज ने भोपाल से और गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा ने अहमदाबाद से फोन पर मीटिंग में लिए गए फैसलों पर सहमति जताई। इन दोनों वरिष्ठ पत्रकारों ने सुशील कुमार सिंह को फंसाने की साजिश की निंदा की और इस साजिश को रचने वालों को बेनकाब करने की मांग की।


बैठक के अंत में मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सुशील कुमार सिंह को परेशान करके वेब माध्यमों से जुड़े पत्रकारों को आतंकित करने की साजिश सफल नहीं होने दी जाएगी। इस लड़ाई को अंत तक लड़ा जाएगा। जो लोग साजिशें कर रहे हैं, उनके चेहरे पर पड़े नकाब को हटाने का काम और तेज किया जाएगा क्योंकि उन्हें ये लगता है कि वे पुलिस और सत्ता के सहारे सच कहने वाले पत्रकारों को धमका लेंगे तो उनकी बड़ी भूल है। हर दौर में सच कहने वाले परेशान किए जाते रहे हैं और आज दुर्भाग्य से सच कहने वालों का गला मीडिया से जुड़े लोग ही दबोच रहे हैं। ये वो लोग हैं जो मीडिया में रहते हुए बजाय पत्रकारीय नैतिकता को मानने के, पत्रकारिता के नाम पर कई तरह के धंधे कर रहे हैं। ऐसे धंधेबाजों को अपनी हकीकत का खुलासा होने का डर सता रहा है। पर उन्हें यह नहीं पता कि वे कलम को रोकने की जितनी भी कोशिशें करेंगे, कलम में स्याही उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी। सुशील कुमार प्रकरण के बहाने वेब माध्यमों के पत्रकारों में एकजुटता के लिए आई चेतना को सकारात्मक बताते हुए आलोक तोमर ने इस मुहिम को आगे बढ़ाने पर जोर दिया।बैठक में हिंदी ब्लागों के कई संचालक और मीडिया में कार्यरत पत्रकार साथी मौजूद थे।
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अगर आप भी कोई ब्लाग या वेबसाइट या वेब पोर्टल चलाते हैं और वेब पत्रकार संघर्ष समिति में शामिल होना चाहते हैं तो aloktomar@hotmail.com पर मेल करें। वेब माध्यमों से जुड़े लोगों का एक संगठन बनाने की प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है। आप सबकी भागीदारी का आह्वान है।
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((इस पोस्ट को कापी करके आप अपने-अपने ब्लागों-वेबसाइटों पर प्रकाशित करें ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक यह संदेश पहुंचाया जा सके और वेब माध्यम के जरिए सुशील कुमार की लड़ाई को विस्तार दिया जा सके।))
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सुमीत के झा (sumit k jha)
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Wednesday, October 22, 2008

क्या इसे आतंकवाद न माना जाये ?

आतंकवाद का अर्थ होता है सुविचारित एवं विधिवत रूप से आतंक (भय) फैलाने वाली कार्यवाही करके अपनी बात को मनवाने के लिये दबाव बनाना। तो जो कुछ महाराष्ट्र में हो रहा है, क्या इसे आतंकवाद न कहा जाये।


कुछ राजनितिक रूप से असफल लोगो ने यह फैसला करना शुरू कर दिया, की 'भैयाओं'(महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के लिए इस्तमाल होने वाला संज्ञा) को रेलवे परीक्षा नहीं देनी दी जायेगी, और इसके लिए उम्मीदवारों की रेलवे स्टेशनों और परीक्षा केन्द्रों पर सरेआम पिटाई की गयी। कभी हिन्दू धर्म की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने वाली शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने इन छात्रों को मुंबई की सड़को पे बेरहमी से पिटाई की, और पुलिस मूकदर्शक बन कर देखती रही।


क्या यह आतंकवाद नहीं ? राज की "राज"निति का शिकार उन मासूम छात्रों को बनना पड़ा, जो बकायादा परीक्षा के द्वारा नौकरी की तलाश में स्वप्ननगरी आए थे। न तो इन्हें राज की राजनीति से कोई वास्ता था, और न रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की राजनीति से। "भैया लोग" महाराष्ट्र रोटी की तलाश में आए थे, न की "मराठी मानुष" की रोटी छीनने। इन्हें बचपन से बताया गया था देश में कहीं भी आने-जाने, रहने का इन्हें संवैधानिक अधिकार है। इन्हें यह पता नहीं था की आज इस देश के अन्दर छोटे छोटे कई देश बन चुके है,जहाँ के अपने कानून है, जहाँ के अपने शाषक हैं।


मुंबई में आजीविका की तलाश में आने वाले व्यक्ति की पिटाई करवाने वाले राज ठाकरे के दादाजी यानि कि बाल ठाकरे के पिता "प्रबोधनकर ठाकरे" खुद रोजी-रोटी की तलाश में मध्यप्रदेश से महाराष्ट्र आए थे। और यह दावा कोई और नहीं बल्कि पुणे विश्वविद्यालय की महात्मा फुले पीठ के चेयरमैन और आम्बेडकर के बारे में गहरे जानकार "प्रोफेसर हरि नार्के" ने राकांपा के मुखपत्र 'राष्ट्रवादी' में प्रकाशित अपने लेख में किया था। नार्के ने इस लेख में मनसे प्रमुख राज ठाकरे द्वारा उत्तर भारतीयों के खिलाफ जारी हमलों की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था मनसे प्रमुख राज ठाकरे को अपने दादा यानी कि बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकर ठाकरे की आत्मकथा पढ़नी चाहिए। प्रबोधनकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि उन्होंने मध्यप्रदेश में अपनी पढ़ाई की और फिर वे आजीविका के लिए कई राज्यों में घूमे।


मुंबई को अपनी बपौती समझने वाला ठाकरे परिवार खुद मुंबई का मूल निवासी नहीं हैं। यहाँ सवाल यह उठता कि जो लोग खुद दो पीढ़ियों पहले रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई आए उन्हें मुंबई में काम की तलाश में आने वालों की पिटाई का हक किसने दिया?


शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना देश में आतंकवाद फैला रही हैं। सुविचारित एवं विधिवत रूप से आतंक फैलाने वाली कार्यवाही से अपनी बात को मनवाने के लिये दबाव बनाया जा रहा हैं। और आतंकवाद इसी को कहते हैं। यह आतंकवाद का नया रूप है जिसे "क्षेञवाद का आतंकवाद" कहना गलत नहीं होगा।

सुमित के झा(sumit k jha)
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Sunday, October 19, 2008

दिल्ली शहर, हादसों का शहर

राजधानी दिल्ली का विकास मार्ग आज एक हादसे का प्रत्यक्षदर्शी बना। अहले सुबह निर्माणाधीन मेट्रो रेल के एक बडे ढांचे के सडक पर आ गिरने से 5 व्यक्ति की मौत हो गई और 15 घायल हो गए। हादसा रविवार सुबह 6:55 मिनट पे हुआ। पहली नज़र में यह एक तकनीकी भूल लगती है। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मेट्रो रेलवे ट्रैक के दो खंभों के बीच का हिस्सा रोबोटिक क्रेन के साथ जमीन पर आ गिरा। यह हिस्सा 15 फुट लंबा था।

रूट नंबर 39 की एक ब्लूलाइन बस, ट्रक और एक कार के मलबे की चपेट में आने से बस चालक सुरेन्दर पाल की मौके पर ही मौत हो गई। बाकी मरने वालो का अभी तक पहचान नहीं हो पाया है। दिल्ली मेट्रो के इतिहास में यह पहला मौका है जब निर्माणाधीन पूरा का पूरा ढांचा सडक पर आ गिरा हो।

हलाँकि दिल्ली मेट्रो सुरक्षा के लिए तमाम जरूरी सावधानी बरतती है। ऐसे में यह घटना परियोजना को समय पर पूरा करने के लिए दिखाई जा रही हड़बड़ी के कारण हो सकती हैं। कही ऐसा तो नहीं राजधानी में वर्ष 2010 में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की परियोजनाओं को समय पर पूरा करने के लिए की जा रही जल्दबाजी और हड़बड़ी के कारण सुरक्षा को ताक पे रखा जा राह हो?

इस बीच दिल्ली मेट्रो रेल निगम (डीएमआरसी) के प्रोजेक्ट मैनेजर विजय आनंद ने दुर्घटना के लिए तकनीकी गडबडी को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि मामले की उच्च स्तरीय जांच की जाएगी। उनके अनुसार मेट्रो रेल का ढांचा लगाते समय इसी तरह की लांचिंग का इस्तेमाल होता आ रहा है। लेकिन इस तरह का हादसा पहली बार हुआ है, जो इस बात का संकेत दे रहा है की यह घटना तकनीकी गडबडी का परिणाम हो सकता है,जिसकी वजह से एक हिस्से में पूरे लोहे का ढांचा और इसके साथ लगे स्लैब्स नीचे गिर गए।

यह घटना रविवार के सुबह हुआ। अगर यह घटना सोमवार से शनिवार के बीच हुआ होता, तो शायद तस्वीर ही कुछ और होती। और यही बात पूर्वी दिल्ली वासियों को राहत दे रही है।

Sumit K Jha
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Monday, October 13, 2008

"कश्मीरी पंडित" होने का दर्द

गर फ़िर्दौस बर रुए ज़मीन अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त । (फ़ारसी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शब्द)
अगर इस धरती पर कहीं स्वर्ग है, (तो वो) यहीं है, यहीं है ।

प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये । सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन ने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसल्मान बनने पर, या राज्य छोड़ने पर या मरने पर मजबूर कर दिया था। नतीजा कुछ ही सदियों में कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुमत हो गया । यह तो हो गयी ख़ूबसूरत कश्मीर की इतिहास की एक बानगी।

1990 के दशक में जब आतंकवाद अपने चरम पर था तो कई आतंकवादियों ने चुन-चुन कर कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया। सरकारी आंकरे के अनुसार भारत की आज़ादी के समय कश्मीर की वादी में लगभग 15 % हिन्दू थे और बाकी मुसल्मान। आतंकवाद शुरु होने के बाद आज कश्मीर में सिर्फ़ 4 % हिन्दू बाकी रह गये हैं।

कश्मीरी पंडितों को 1990 में कश्मीर छोड़ कर भागने पर विवश करने में हिजबुल मुजाहिदीन सबसे आगे था। हलाँकि चरमपंथी गतिविधियों के तहत राज्य में पहली गोली चौदह सितंबर, 1989 को चली जिसने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू को निशाना बनाया गया था। उसके कुछ महीने बाद जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या की गई और कश्मीरी पंडितों में एक दहशत का माहौल पैदा हो गया। उस समय के हिजबुल मुजाहिदीन प्रमुख अहसान डार ने मीडिया के जरिये कश्मीरी पंडितों को घाटी से चले जाने का फरमान जारी किया था।

नतीजा बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितो ने राज्य से पलायन किया और अपना घर संपत्ति और ज़मीन से महरूम भारत के अलग-अलग राज्यों में बड़ी दयनीय स्थिति में जीवन बिता रहे हैं। आज हालत ने विस्थापित कश्मीरी पंडित को अपने देश में ही शरणार्थी बना दिया हैं।

सरकारी आंकड़े के अनुसार:
  • जम्मू कश्मीर में प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 34,878
  • कश्मीर से बाहर प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 21,684
  • शिविरों में रहने वाले परिवार : 15,045

कश्मीरी पंडित इतने भयभीत हैं कि सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर लौटने की इच्छा रखने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए 1600 करोड़ रु. का पैकेज घोषित किया था। ऐसे प्रत्येक परिवार को 7.5 लाख रुपए दिए जाने की घोषणा की गयी थी। कुछ साल पहले हिज़्बुल मुजाहिदीन के नेता सैयद सहाबुद्दीन ने कहा था कि कश्मीरी पंडित वापस अपने प्रदेश लौट सकते हैं । उन्हें उनका संगठन पूरी सुरक्षा देगा। लेकिन तमाम दावे, वादों के बाबजूद कश्मीरी पंडित वापस अपने जरो को नहीं लौटना चाहरहे हैं। आखिर क्यों???

अगर सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं??? तो इसके पीछे भी सरकारी लापरवाही जिम्मेदार है। जब कश्मीरी पंडितों ने अपनी व्यथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने रखी थी, आयोग ने इस बात को तो माना कि राज्य में मानवाधिकारों का हनन हुआ है लेकिन उनकी इस माँग को अस्वीकार कर दिया कि उन्हें नरसंहार का शिकार और आंतरिक रूप से विस्थापित माना जाए।

इसके पीछे की वजह जानने से पहले शायद इनके दर्द को समझना होगा। विस्थापित होने का दर्द, अपनों से अलग होने का दर्द, अपनी मिट्टी छुटने का दर्द, अपनों को खोने का दर्द, राहत शिविरों में रहने का दर्द, बच्चो की शिक्षा छुटने का दर्द, अपने ही देश में शरणार्थी होने का दर्द........जिस दिन हम कश्मीरी पंडितो का यह दर्द समझ जायेंगे, हम इन्हें वापस कश्मीर की हसीन फिजा में कश्मीरियत(कश्मीर की संस्कृति) फैलाते पाएंगे। कहते हैं कि हर कश्मीरी की ये ख़्वाहिश होती है कि ज़िन्दगी में एक बार, कम से कम, अपने दोस्तों के लिये वो वाज़वान(कश्मीरी दावत ) परोसे। और तब यह ख़्वाहिश न जाने कितने कश्मीरी पंडितो की पूरी होगी। वादी-ए-कश्मीर अपने बिछरे दोस्तों का तहे दिल से इस्तकबाल करने को बेचैन हैं। बाकी देश की राजनीति और राजनितिक आकाओ के रहम करम पे।

Saturday, October 11, 2008

कही कश्मीर नहीं बन जाये "असम"???

"असम" सन 1979 से अवैध बंग्लादेशी घूसपैठिये के समस्या से लगातार जुझ रहा है। और यह घटने के बजाय विकराल रूप लेता जा रहा रहा है। बंगलादेश की खुफिया पुलिस डीजीएफआई और आईएसाअई ने सन्युक्त रणनीति के तहत बंगलादेश के लोगो को सीमा पार करा कर और दलालो के माध्यम से नागरिकता दिलवाकर असम की सामाजिक ताना बुना को नष्ट कर दिया है।

पिछले कुछ साल से असम के छात्र ,राजनीतिक और सामाजिक संगठन इसके विरुद्ध एकजुट हो रहे हैं, और यहा पर रह रहे घूसपैठिये का विरोध कर रहे है। हाल ही मे असम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और नागालैण्ड के छात्रसंघ ने इन्हे भारत छोडने की धमकी दे रखी थी। शुरुआती दौर मे इसे मह्त्त्व नही दिया गया लेकिन बाद में यह जोड पकडने लगा। इसी कडी मे अवैध बंग्लादेशी घूसपैठिये के द्वारा अगस्त के अंत मे बंद रखा गया। बन्द का व्यापक असर देखने को मिला। बन्द के दौरान जमकर हिंसा और तोड फोड की गयी जिसमे 8 असामी मारे गए। हिंसा का दौर 15 दिनो तक चलता रहा।

अब पुन: बंग्लादेशी घूसपैठिये के द्वारा हिन्दू बहुल आदिवासी बोडो, राभा, गारो, खैसा और संथाल निशाने पे हैं। असम के उदलगुड़ी और दराग जिलों में हिंसा की कई ताजे मामले सामने आ रहे हैं। अभी तक अप्रवासी अवैध बांग्लादेशियों और स्थानीय आदिवासियों के बीच संघर्ष में 52 लोग मारे गए। 12 गांवो को आग के हवाले कर दिया गया । आग के हवाले किए गए गांव के नाम है, इकरबारी, बतबारी, फकिदिया, नदीका, चकुपारा, पुनिया, झारगांव, गेरुआ, बोरबगिचा,ऐतनबारी,रौत्ताबगन और सिदकुरना। हैरान करने वाली बात तो यह है की असम के दारंग जिले की 40 प्रतिशत आबादी बंग्लादेशियो की है।

एक अनुमान के अनुसार करीब 15 लाख अवैध बंगला देशी भारत मे रह रहे है। जिनमे 8 लाख पश्चिम बंगाल मे,5 लाख पचास हजार असम मे, और 1 लाख बिहार और झारखण्ड मे( कटिहार ,साहेबगंज, और किशनगंज )। असम के पुर्ब राज्यपाल एस के सिन्हा के अनुसार असम के 40 विधान सभा सीटो पर इसी तरह के मतदाताओ का प्रभुत्व रहा हैं।

एक खबर जो इन सारे घटनाक्रमों से निकल कर आ रही है, की अप्रवासी अवैध बंगलादेशी असम में पाकिस्तानी झंडे फ़हरा रहे है। अगर यह बात सही है तो कांग्रेस के लिए यह एक शर्मनाक बात होगी। असम मे कांग्रेस की सरकार है, अब देखना यह है की मुख्यमंत्री तरुण गोगोई इस संकट से कैसे बाहर निकलते हैं। कांग्रेस असम को दूसरा कश्मीर न बनने दे। कांग्रेस को असम में तुष्टीकरण की नीत्ति छोरनी परेगी। वर्ना आने वाले पीड़ी को हम एक और संकट वारिश में दे जायेंगे।

भज्जी और मोना सिंह के ठुमके

सुनवाई सोमवार को तय।चंडीगढ़ के एक अदालत में होगी सुनवाई।
भज्जी फिर अपने ही गुगली में उलझ गए हैं। विश्व हिंदू परिषद ने ऑफ स्पिनर हरभजन सिंह के रावण तथा मॉडल एवं अभिनेत्री मोना सिंह के सीता की वेशभूषा में एक टेलिविजन शो में ठुमके लगाने के लिए चंडीगढ़ के एक अदालत में आपराधिक शिकायत दायर की हैं।

मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट कंचन माही की अदालत में अपराध प्रक्रिया संहित की धारा- 298 और 120 (बी) के तहत दायर की गई शिकायत में संगठन ने कहा की क्रिकेटर हरभजन और अभिनेत्री मोना सिंह ने रावण और सीता की वेशभूषा में नाचकर हिंदू समुदाय की भावनाओं को आहत किया है। ऐसे कृत्य से देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया जा रहा है। इसके अतिरिक्त याचिका में कहा गया है कि हरभजन सिंह पंजाब पुलिस में डीएसपी हैं और इतने बड़े ओहदे पर रहते हुए ऐसे काम करना उन्हे शोभा नहीं देता। अखिल भारतीय राजपूत परिषद और बजरंग दल की पंजाब इकाई ने भी विहिप का साथ दिया है। पंजाब वेल्फेयर ऑर्गेनाइजेशन के प्रधान वरिंदर सहदेव ने भी भज्जी और मोना से बिना शर्त माफी मांगने की मांग की है।

भज्जी-मोना के इस नृत्य पर हिंदू संगठनों के साथ-साथ सिखों ने भी आपत्ति जताई है। अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह ने कहा कि माथे पर तिलक लगाकर ऐसा डांस करना एक सिख को शोभा नहीं देता। गौरतलब है की भज्जी और मोना सिंह सिख घराने से संबंध रखते हैं।

सनद रहे की इससे पहले भी भज्जी ने केश बिखेरकर शराब कंपनी के लिए विज्ञापन किया था। जिस के कारण उन्हें सार्वजनिक तौर पर माफी मांगनी परी थी। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट कंचन माही ने मामले की सुनवाई सोमवार को तय की है। और शिकायकर्ताओं से इस सम्बंध में सबूत पेश करने को कहा है।

Saturday, October 4, 2008

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02

# तात्कालिक उपाय : धमाकों से सहमकर आम जनता पर बंदिशें लगाने के बजाय भारत सरकार को अमेरिका और इसराइल की तर्ज पर seek and destroy (ढूँढो और मारो) की नीति अपनाते हुए इन आतंक फैलाने वालों का सफाया कर उनमें पलटवार का ऐसा डर बैठाना चाहिए क‍ि कोई भी आतंकवादी या आतंकी संगठन भारत और उसके नागरिकों को नुकसान पहुँचाने से पहले सौ बार सोचे। अंतरराष्ट्रीय दबाव की परवाह किए बगैर भारत सरकार को इस मुद्दे पर कठोर रुख अख्तियार करना होगा।


# आतंकवाद निरोधी कानून : आतंकवाद निरोधी कानून को पुख्ता बनाना होगा। हाल ही में अलग-अलग राज्यों में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों की जाँच और आगे निर्विघ्न कार्रवाई के लिए एक संघीय एजेंसी बनाई जाए। सुरक्षा बलों को आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में विशेष अधिकार दिए जाएँ। वर्तमान कानून इस समस्या से निपटने में प्रभावी नहीं है। आतंकवाद पर काबू पाने के लिए आतंकवादियों अथवा आतंकवादी संगठनों के समर्थको व शुभचिंतको पर भी कठोर कार्यवाई की जाना चाहिए। भारत में कानून बड़े पुराने हैं और अब प्रासंगिक भी नहीं रहे। आतंकवाद निरोधक कानूनों की समय-समय पर समीक्षा हो, जिससे जरूरत पड़ने पर आवश्यक बदलाव या फेरबदल संभव हो।


# दीर्घकालीन उपाय : भारत के संविधान ने सभी धर्मों को अपने धर्म के प्रचार, प्रसार व शिक्षा की स्वतंत्रता दी है, पर कई बार इसकी आड़ में बच्चों में बचपन से ही अलगाववाद की भावना भर दी जाती है। मुस्लिम मदरसे हों, सिख स्कूल हों, मिशनरी हों या हिन्दू पाठशाला, सभी के पाठ्यक्रम में एकरूपता लाई जाना चाहिए। कई बार बच्चों में दूसरे धर्मों के प्रति गलत व बुरी धारणाएँ बन जाती हैं, पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से बच्चे के दिमाग में फैली भ्रांतियाँ दूर की जा सकती हैं।

# राजनीति : केन्द्र और राज्य सरकारों को भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देश की सुरक्षा के बारे में सोचना होगा। सोचिए, 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई बडा आतंकवादी हमला नहीं हुआ। यहाँ तक कि स्पेन जैसे देश में मेड्रिड धमाकों के बाद कोई हमला नहीं हुआ। दूनिया के समक्ष देश की छवि एक कमजोर राष्ट्र की बन रही है। देश के निति निर्धारकों मे ईच्छाशक्ति की जो कमी है, उस से पार पाना होगा। वोट बैंक की चिंता किये बिना आतंकवाद से लरना होगा। क्योंकि नेता हो या आम आदमी सबका वजूद इस देश से है, इसकी सुरक्षा सर्वोपरि है।

# छदम धर्मनिरपेक्ष और मानवधिकार संघठन से पार पाना : छदम धर्मनिरपेक्ष और मानवधिकार संघठन से पार पाना होगा। इन संघठानो का सिर्फ एक काम बाकी रह गया है, पुलिस की मनोबल को तोड़ना। आज तक किसी आतंकवादी हमले की बाद इनका कोई बयान नहीं आया, लेकिन पुलिस कार्रवाई की बाद कोर्ट जाना, मोमबती लेकर मार्च करना इनका सगल बन गया हैं। आतंकवादी संगठनों के इन समर्थको व शुभचिंतको पर भी कठोर कार्यवाई की जाना चाहिए। इन व्यक्ति अथवा संस्थाओं पर वित्तीय प्रतिबंध लगाए जाना चाहिए।

......जारी।

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01

आतंकवादी हमले में अकसर एक ख़ास तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा हैं। मसलन साइकिल का इस्तेमाल। कुछ अहम् बात जो इन हमले में निकल कर आ रही है....

# स्थानीय नागरिको की लिप्तता : अकसर देखा गया है कि आतंकवादियों द्वारा एक ख़ास वर्ग को धार्मिक एवं अन्य कारणों से भड़काकर, उकसाकर आतंकी घटना को अंजाम दिया जाता है। बिना स्थानीय नागरिको के मदद से कोई भी आतंकवादी हमला हो ही नहीं सकता।

# मौत के सामान की सहज उपलब्धता : हाल के आतंकवादी हमलो में इस्तेमाल की गई सभी सामान सर्वसुलभ थीं। साइकिल भारत के निम्न वर्ग का सबसे बड़ा आवागमन का साधन है, जिस पर कोई शक नहीं करता और इसे खरीदने के लिए कोई दस्तावेज नहीं देना पड़ते हैं। दूसरा है अमोनियम नाइट्रेट, जो भारत जैसे कृषिप्रधान देश में खेती के लिए आमतौर पर उपयोग में लाया जाता है। साथ ही पेट्रोल, टिफिन, नट-बोल्ट, छोटे गैस सिलेंडर, बॉल-बेरिंग जैसी वस्तुएँ तकरीबन रोजाना ही उपयोग में लाई जाती हैं।

# एक नयी ट्रेंड की शुरुआत: आतंकियों को बम कहीं से आयात नहीं करने पर रहे हैं, सब यहीं मिल जाता है। आयात होता है तो बस आतंक का विचारधारा। पहले बाकी सारे काम स्थानीय गुटों की मदद से छोटे अपराधी या ऐसे लोग जिन्हें आतंकवादियों द्वारा भड़का दिया जाता है, करते थे। अब विदेशी आतंकी संघठन का स्थान अपने लोगो ने ले लिया है। जो मासूम लोगों की भावनाओं को भड़काकर, उकसाकर आतंकी घटना को अंजाम देते है।

# सुरक्षा बलों की समस्या: शहरों में कानून-व्यवस्था पस्त हाल में है। उदाहरण के लिए जयपुर जैसे मध्यम शहर में 25 लाख की आबादी पर केवल 2500 का पुलिस बल तैनात है। सुरक्षा एजेंसियाँ भी आतंकवादी हमले के लिए प्रशिक्षित और मुस्तैद नहीं हैं। सुरक्षा इंतजाम पुख्ता न होने के कारण आतंकवादी घटनाओं को आसानी से अंजाम दिया जा रहा है।

# शांतिपूर्ण हल : शांतिपूर्ण हल की तो सोच भी बेमानी है। अतीत में हमने पंजाब समस्या, मिजो समस्या का हल शांतिपूर्ण तरीके से निकला था। लेकिन आज की हालात में आतंकवाद का भूमंडलीकरण हो चुका है,और इससे संपूर्ण मानवता आतंकित है।

# बल प्रयोग : आतंकवादियों पर कठोर से कठोर कार्रवाई की जाना चाहिए। इन्हें मदद दे रहे देशों के खिलाफ भी कठोर कदम उठाने से हिचकना नहीं चाहिए, जब अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई तालिबान से तंग आकर पाकिस्तान की सीमा में घुसकर तालिबान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की चेतावनी दे सकते हैं तो भारत सरकार क्यों बांग्लादेश और पाकिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने में हिचकती है? आतंकवादियों को बिरयानी खिलाने की नीत्ति छोरनी होगी। आतंकवादियों को आर्थिक,कानूनी और वैचारिक समर्थन देने वालो की खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाना चाहिए। संघीय एजेंसी और खुफिया तंत्रों में बेहतर तालमेल के लिए अधिकारियों को अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाए, जिससे अधिकारियों में सूचना तंत्र की समझ और नेटवर्क बढ़ाया जा सके।

........जारी।

Friday, October 3, 2008

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01

हिन्दुस्तान में आतंकवादियों के हौसले बुलंद है। सरकारें हीलिंग टच की नीति अपना रही है तो बदले मे आतंकवादी विस्फोट कर रहे हैं। निशाने पे है देश की निर्दोष जनता। आज की तारीख़ में देश का हर कोना निशाने पर आया और दिल को थर्राने वाले हादसे हुए है। ये सब कारनामे जेहाद रुपी इस्लामी आतंकवादियों का हैं। ये जहां-तहां देश के कोने-कोने में अपनी कार्यवाही को अंजाम दे रहे हैं और हमारी सरकारें मूकदर्शक बन कर खड़ी हुई है। आतंकवाद के मूल मे इस्लामी चरमपंथ है जो विश्व के अन्य हिस्सों में भी काल का दूसरा नाम बन गया है।



सरकार राजनीतिक सत्यता के चक्कर में आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी का रुख़ अपनाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही हैं। हाल के दिनों में दो घटना मुस्लिम तुष्टिकरण की तरफ ध्यान आकर्षित करती है, जो की आतंकवाद का मूल कारण हैं। पहला अमरनाथ संघर्ष में तिरंगा का अपमान। श्रीनगर में यों जलाया गया था तिरंगा....
क्या यह संसार के किसी देश में सम्भव था.....???

इस राष्ट्रीय अपमान का क्या करेंगे.........???

क्या इसे देश के खिलाफ युद्ध नहीं माना जाये..............???

दूसरी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कुलपति मुशीरुल हसन, शिक्षक और छात्र खुलकर आतंकवादियों की कानूनी और वैचारिक समर्थन में आगे आ गए। मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह हसन के उस बयान का समर्थन किया जिसमें उन्होंने जामिया के छात्रों को कानूनी मदद देने का ऐलान किया था। दरअसल कांग्रेस पार्टी आतंकवाद से कड़ाई से निपटने के नाम पर मुस्लिम वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहती।
हम आतंकवाद से निपटने में नाकाम रहे हैं। कई सरकारें आईं और गईं। लेकिन आतंकवाद रोज़ सुरसा की तरह मुंह फैलाए जा रहा है. आतंकवाद के मूल मे इस्लामी चरमपंथ है जो विश्व के अन्य हिस्सों में भी काल का दूसरा नाम बन गया है।
कैसे निपटा जाए इस आतंकवाद से, यह सवाल अहम है. उससे भी ज़्यादा अहम है आतंकवाद का मूल क्या है? क्यों दुनिया के कुछ देशों में चल रहे विवादों को अन्य देश भुगत रहे हैं? क्या ये सभ्यताओं का संघर्ष है? क्या हम राजनीतिक सत्यता के चक्कर में आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी का रुख़ अपनाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं? आख़िर कैसे निपटा जाए इस इस्लामी आतंकवाद से?

.......जारी।

Thursday, October 2, 2008

जेहाद या आतंकवाद का फसाद

जेहादी आतंक का भूमंडलीकरण हो चुका है। सारी दुनिया को कट्टरपंथी इस्लामी आस्था के लिए मजबूर करने वाले जेहादी युद्ध विश्वव्यापी है और इससे संपूर्ण मानवता आतंकित है। दक्षिण पूर्व में आस्ट्रेलिया इससे पीड़ित है। फिलीपींस, थाईलैंड इसके प्रभाव क्षेत्र हैं। रूस, मिस्त्र, युगोस्लाविया, स्पेन पीड़ित है। हलाँकि अमेरिका और ब्रिटन खुलकर आतंकवाद के खिलाफ मैदान में है। यहाँ तक की अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने जेहादी आतंकवाद को 'इस्लामी फासीवाद' कहा था।

अगर बात हिन्दुस्तान की करे तो हिन्दुस्तान जेहाद के नाम पर बढ़ रहे आतंकवाद के निशाने पे है। हम जिहाद नामी इस्लामी आतंकवाद से पिछले दो दशक से लड रहे है। जिन दिनों हिन्दुस्तान इस्लामी आतंकवाद से लड रहा था उन दिनों अमेरिका सहित पश्चिमी विश्व के लोग भारत में कश्मीर केन्द्रित आतंकवाद को स्वतंत्रता की लडाई मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। और हमने भी कभी अपने देश में चल रहे आतंकवाद को परिभाषित कर उससे लड्ने की कोई रणनीति अपनाई??? शायद कभी नहीं? इसके पीछे दो कारण हैं। एक तो हमने कभी आतंकवाद की इतना भयावह रूप की कल्पना नहीं की थी, दूसरा भारत में आतंकवाद के लिये सदैव पडोसी देश को दोषी ठहरा कर हमारे नेता अपने दायित्व से बचते रहे और तो और आतंकवाद के इस्लामी पक्ष की सदैव अवहेलना की गयी और मुस्लिम वोटबैंक के डर से इसे चर्चा में ही नहीं आने दिया गया।

हिन्दुस्तानियों ने जिहाद प्रेरित इस इस्लामी आतंकवाद से लड्ने के तीन अवसर गँवाये हैं। (१) 1989 में इस्लाम के नाम पर पकिस्तान के सहयोग से कश्मीर घाटी में हिन्दुओं को भगा दिया गया तो भी इस समस्या के पीछे छुपी इस्लामी मानसिकता को नहीं देखा गया। और कश्मीरी हिन्दुओं को उनको हाल पर छोर दिया गया। (२) 1993 में, जब जिहाद प्रेरित इस्लामी आतंकवाद कश्मीर की सीमाओं से बाहर मुम्बई पहुँचा। इस अवसर पर भी इस घटना को बाबरी ढाँचे को गिराने की प्रतिक्रिया मानकर चलना बडी भूल थी और यही वह भूल है जिसका फल आज भारत भोग रहा है। (३) 13 दिसम्बर 2001, जब संसद पर आक्रमण के बाद भी पाकिस्तान के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गयी। यह अंतिम अवसर था जब भारत में देशी मुसलमानों को आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने से रोका जा सकता था। इस समय तक भारत में आतंकवाद का स्रोत पाकिस्तान के इस्लामी संगठन और खुफिया एजेंसी हुआ करते थे और भारत के मुसलमान केवल सीमा पार से आने वाले आतंकवादियों को सहायता उपलब्ध कराते थे। इसके बाद जितने भी आतंकवादी आक्रमण भारत पर हुए उसमें भारत के जिहादी संगठन लिप्त हैं। और इन सबसे भी भयावह तो अभी के हालात् में राजनीतिक दलों और जामिया जैसे शिक्षण संस्थान का आतंकवाद का खुला समर्थन है। शिक्षा के क्षेत्र से जेहादी वायरस को दूर करना होगा।

जेहाद अपने को नये रंग में ढालने की कोशिश कर रहा है। उसका यह तेवर कितना ख़तरनाक, उसकी धार कितनी तीखी तथा जहर बुझी है, उसका अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ दिनों पहले पाकिस्तान की लाल मस्जिद में जुटी सैकड़ों महिलाओं ने अपने बच्चों को जेहादी बनाने की शपथ ली थी। महिलाओं की इस सभा को मस्जिद के मौलाना अजीज की बेटी ने संबोधित किया था। यह सही है कि हिन्दुस्तान जैसे कई देशों की इस्लामिक संस्थाएं, शिक्षण-संस्थान और उलेमा तथा विद्वान यह प्रचार कर रहे हैं कि आतंकवादी जिस जेहाद शब्द के इस्तेमाल के साथ निर्दोष लोगों का कत्ल कर रहे हैं, इस्लाम में उसको पूरी तरह ख़ारिज किया गया है। इन संस्थाओं ने इस मुत्तलिक बाकायदा मुहिम संचालित कर रखी है।

वक़्त आ गया है की, आतंकवाद के खिलाफ सारे देशो को एक मंच पर आना होगा, और इस जेहाद रुपी भाष्मासूरी विचारधारा से निजात पाया जाये। वर्ना यह सिलसिला एक अटूट श्रृंखला बनता जाएगा और हर ओसामा-बिन लादेन के पीछे आतंकी कमान संभालने के लिए उसका बेटा हमजा-बिन लादेन के रूप में तैयार खड़ा मिलेगा।

वक़्त आ गया है की जनता अपने राजनितिक आका से सवाल करे की सिमी उनके लिए मायने रखती है या जनता की सुरक्षा??

वक़्त आ गया है की जामिया जैसे संस्थान से पूछे की, क्या हक़ बनता है जनता के पैसे से आतंकवादियों की कानूनी मदद करने का???

वक़्त आ गया है अर्जुन सिंह, लालू परसाद यादव, राम विलास पासवान, मुलायम सिंह, अमर सिंह जैसे छदम धर्मनिरपेक्ष नेताओं को देशभक्ति की पाठ याद दिलाने का????

क्योकि अभी नहीं तो फिर कभी नहीं !!!

 

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