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Monday, October 13, 2008

"कश्मीरी पंडित" होने का दर्द

गर फ़िर्दौस बर रुए ज़मीन अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त । (फ़ारसी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शब्द)
अगर इस धरती पर कहीं स्वर्ग है, (तो वो) यहीं है, यहीं है ।

प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये । सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन ने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसल्मान बनने पर, या राज्य छोड़ने पर या मरने पर मजबूर कर दिया था। नतीजा कुछ ही सदियों में कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुमत हो गया । यह तो हो गयी ख़ूबसूरत कश्मीर की इतिहास की एक बानगी।

1990 के दशक में जब आतंकवाद अपने चरम पर था तो कई आतंकवादियों ने चुन-चुन कर कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया। सरकारी आंकरे के अनुसार भारत की आज़ादी के समय कश्मीर की वादी में लगभग 15 % हिन्दू थे और बाकी मुसल्मान। आतंकवाद शुरु होने के बाद आज कश्मीर में सिर्फ़ 4 % हिन्दू बाकी रह गये हैं।

कश्मीरी पंडितों को 1990 में कश्मीर छोड़ कर भागने पर विवश करने में हिजबुल मुजाहिदीन सबसे आगे था। हलाँकि चरमपंथी गतिविधियों के तहत राज्य में पहली गोली चौदह सितंबर, 1989 को चली जिसने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू को निशाना बनाया गया था। उसके कुछ महीने बाद जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या की गई और कश्मीरी पंडितों में एक दहशत का माहौल पैदा हो गया। उस समय के हिजबुल मुजाहिदीन प्रमुख अहसान डार ने मीडिया के जरिये कश्मीरी पंडितों को घाटी से चले जाने का फरमान जारी किया था।

नतीजा बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितो ने राज्य से पलायन किया और अपना घर संपत्ति और ज़मीन से महरूम भारत के अलग-अलग राज्यों में बड़ी दयनीय स्थिति में जीवन बिता रहे हैं। आज हालत ने विस्थापित कश्मीरी पंडित को अपने देश में ही शरणार्थी बना दिया हैं।

सरकारी आंकड़े के अनुसार:
  • जम्मू कश्मीर में प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 34,878
  • कश्मीर से बाहर प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 21,684
  • शिविरों में रहने वाले परिवार : 15,045

कश्मीरी पंडित इतने भयभीत हैं कि सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर लौटने की इच्छा रखने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए 1600 करोड़ रु. का पैकेज घोषित किया था। ऐसे प्रत्येक परिवार को 7.5 लाख रुपए दिए जाने की घोषणा की गयी थी। कुछ साल पहले हिज़्बुल मुजाहिदीन के नेता सैयद सहाबुद्दीन ने कहा था कि कश्मीरी पंडित वापस अपने प्रदेश लौट सकते हैं । उन्हें उनका संगठन पूरी सुरक्षा देगा। लेकिन तमाम दावे, वादों के बाबजूद कश्मीरी पंडित वापस अपने जरो को नहीं लौटना चाहरहे हैं। आखिर क्यों???

अगर सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं??? तो इसके पीछे भी सरकारी लापरवाही जिम्मेदार है। जब कश्मीरी पंडितों ने अपनी व्यथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने रखी थी, आयोग ने इस बात को तो माना कि राज्य में मानवाधिकारों का हनन हुआ है लेकिन उनकी इस माँग को अस्वीकार कर दिया कि उन्हें नरसंहार का शिकार और आंतरिक रूप से विस्थापित माना जाए।

इसके पीछे की वजह जानने से पहले शायद इनके दर्द को समझना होगा। विस्थापित होने का दर्द, अपनों से अलग होने का दर्द, अपनी मिट्टी छुटने का दर्द, अपनों को खोने का दर्द, राहत शिविरों में रहने का दर्द, बच्चो की शिक्षा छुटने का दर्द, अपने ही देश में शरणार्थी होने का दर्द........जिस दिन हम कश्मीरी पंडितो का यह दर्द समझ जायेंगे, हम इन्हें वापस कश्मीर की हसीन फिजा में कश्मीरियत(कश्मीर की संस्कृति) फैलाते पाएंगे। कहते हैं कि हर कश्मीरी की ये ख़्वाहिश होती है कि ज़िन्दगी में एक बार, कम से कम, अपने दोस्तों के लिये वो वाज़वान(कश्मीरी दावत ) परोसे। और तब यह ख़्वाहिश न जाने कितने कश्मीरी पंडितो की पूरी होगी। वादी-ए-कश्मीर अपने बिछरे दोस्तों का तहे दिल से इस्तकबाल करने को बेचैन हैं। बाकी देश की राजनीति और राजनितिक आकाओ के रहम करम पे।

1 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

chunki yeh vote bank ka hissa nahin hain, isliye s.p.,b.s.p.,congress, comuniston ke dard nahi hota.

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