* लोकतंत्र के महापर्व में वाक्-चलीसा * आखिर क्यों फ़ेंका जरनैल सिंह ने जूता ? * लोकतंत्र का महापर्व और "कुछ ख्वाहिश" * "कश्मीरी पंडित" होने का दर्द * राजनेताओं हो जाओ सावधान, जाग रहा हैं हिंदुस्तान * जागो! क्योंकि देश मौत की नींद सो रहा हैं। * आखिर यह तांडव कब तक? * पाकिस्तानियों में अमेरिकी नीति का खौफ * खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह गया दादा * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 04 * क्या इसे आतंकवाद न माना जाये ? * कही कश्मीर नहीं बन जाये "असम" * जेहाद या आतंकवाद का फसाद * बेबस हिन्दुस्तान, जनता परेशान, बेखबर हुक्मरान * ‘आतंकवाद की नर्सरी’ बनता आजमगढ़ * आतंकवाद का नया रूप * आतंकवाद और राजनीति *

Sunday, August 16, 2009

क्या अमेरिका का कदम गलत हैं???




शाहरूख़ खान को नेवार्क में पूछताछ के लिए घंटों रोके रखना मीडिया में लगातार छाया रहा। लेकिन क्या हम अमेरिकी प्रशासन के इस कदम को गलत ठहरा सकते हैं? अगर कोई राष्ट्र अपने नागरिक की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं तो इसे सरकार की सरहानीय कदम मानना चाहिए। हम अपने नागरिकों की जान की कीमत चंद रुपयों में तोलते हैं। यहाँ तो लोकतंत्र के मंदिर पर हमला करने वाले को बिरयानी खिलाने का रिवाज हैं। कारगिल में शहीद हुए वीर जवानों के परिजनों को बुनयादी सुविधाऐं भी मुहैया नहीं करायी जाती। पाकिस्तानी जेलों में पता नहीं कितने युद्घबंदी भारतीय हुक्ममरानों को कोस रहे होते हैं। हम इतने दिल के अमीर हैं कि आजाद भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के आरोपियों पर कुछ भी कानूनी कार्रवाई नहीं करते। भोपाल गैस त्रासदी के लिये जिम्मेदार यूनियन कार्बाईड को हम माफ़ कर देते हैं। पुरुलिया में हथियारों का बारिश करने वालों को रुस के दबाव में सकुशल रिहा कर दिया जाता हैं। हम अपने आंतरिक मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाते हैं। नेहरु जी के उस भूल की सजा हम आज भी झेल रहे हैं। ज्यादा दुर क्यों जाये, जो कुछ मुंबई में हुआ उसके बाद भी हम अंतराष्ट्रीय हस्तक्षेप की उम्मीद पाले रहे। अमेरिका 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले को आज तक नहीं भुल पाया हैं क्योंकि वह अपने नागरिकों की इज्जत करता हैं। अमेरिका में जान की कीमत चंद डाँलरों में नहीं तोला जाता। अमेरिका पहले अपने नागरिकों के मानवधिकार की चिंता करता हैं, ना कि आतंकवादियों की।


शाहरूख़ खान के साथ जो कुछ हुआ वह शर्मनाक हैं। अगर सिर्फ़ खान होने का दंश शाहरूख़ को झेलना पड़ा तो भारत सरकार को उचित कार्रवाई करनी चाहिये। लेकिन माफ़ करे मुझे नहीं लगता कि मनमोहन सरकार इस पर कोई कार्रवाई करेगी। जो सरकार आस्ट्रेलिया में लगातार पिटे भारतीय छात्रों की रक्षा नहीं कर पायी उससे हम आगे क्या उम्मीद करे। मीडिया भी शाहरूख़ खान के मुद्दे को अपने आईने(टीआरपी) से देखती रहीं। जबकि जरुरत थी कुछ सबक सिखने की। अगर हमें सचमुच विकसित बनना हैं तो हमें अपने नागरिकों की इज्जत करनी होगी।



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Saturday, May 9, 2009

जन गण मन रण है, भारत को बचा ले विधाता! क्या ये राष्ट्र-गान का अपमान हैं?




जन गण मन रण हैं।

इस रण में जख्मी हुआ हैं

भारत का भाग्य विधाता

पंजाब सिंध गुजरात मराठा

एक दुसरे से लड़कर मर रहे हैं,

इस देश ने हमको एक किया

हम देश के टुकड़े कर रहे हैं।

द्राविण उत्कल गंगा

खून बहा के

एक रंग का

कर दिया हमने तिरंगा

सरहदों पर जंग और

गलियों में फ़साद दंगा

विन्ध हिमाचल युमना गंगा

में तेजाब उबल रहा हैं।

मर गया सब का जमीर

जाने जब जिंदा हो आगे

फ़िर भी

तब शुभ नामे जागे

तब शुभ आशिष मांगे

आग में जल कर चीख रहा हैं

फ़िर भी कोई नहीं बचाता।

गावे तब जय गाथा।

देश का ऐसा हाल है

लेकिन आपस में लड़ रहे नेता।

जन गण मंगलदायक जय हे...

भारत को बचा ले विधाता।

जय है या फिर मरण है,

जन गण मन रण है ।

राम गोपाल वर्मा फ़िर एक बार विवाद में आ गये हैं। अपने आने वाली फ़िल्म "रण" को लेकर राम गोपाल वर्मा मिडीया और आम जनता के नजर में विलेन बन गये हैं। आरोप लगा हैं राष्ट्र-गान के अपमान का। ये माना जा सकता हैं कि कहीं ना कहीं राष्ट्र-गान का अपमान हुआ हैं रण के इस गाने में। लेकिन क्या राम गोपाल वर्मा जो कहना चाह रहे हैं गलत हैं??

जाने-अनजाने हम में से हर कोई कहीं ना कहीं राष्ट्र-गान का अपमान करता हैं। एक अहम सवाल जो मेरे मन में उठ रहा हैं कि क्या यह सचमुच राष्ट्र-गान का अपमान हैं? अगर हा तो फिर विरोध जताने का क्या उपाय होना चाहिये?? 


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जन गण मन रण है, भारत को बचा ले विधाता! क्या ये राष्ट्र-गान का अपमान हैं?

जन गण मन रण हैं।

इस रण में जख्मी हुआ हैं

भारत का भाग्य विधाता

पंजाब सिंध गुजरात मराठा

एक दुसरे से लड़कर मर रहे हैं,

इस देश ने हमको एक किया

हम देश के टुकड़े कर रहे हैं।

द्राविण उत्कल गंगा

खून बहा के

एक रंग का

कर दिया हमने तिरंगा

सरहदों पर जंग और

गलियों में फ़साद दंगा

विन्ध हिमाचल युमना गंगा

में तेजाब उबल रहा हैं।

मर गया सब का जमीर

जाने जब जिंदा हो आगे

फ़िर भी

तब शुभ नामे जागे

तब शुभ आशिष मांगे

आग में जल कर चीख रहा हैं

फ़िर भी कोई नहीं बचाता।

गावे तब जय गाथा।

देश का ऐसा हाल है

लेकिन आपस में लड़ रहे नेता।

जन गण मंगलदायक जय हे...

भारत को बचा ले विधाता।

जय है या फिर मरण है,

जन गण मन रण है ।


राम गोपाल वर्मा फ़िर एक बार विवाद में आ गये हैं। अपने आने वाली फ़िल्म "रण" को लेकर राम गोपाल वर्मा मिडीया और आम जनता के नजर में विलेन बन गये हैं। आरोप लगा हैं राष्ट्र-गान के अपमान का। ये माना जा सकता हैं कि कहीं ना कहीं राष्ट्र-गान का अपमान हुआ हैं रण के इस गाने में। लेकिन क्या राम गोपाल वर्मा जो कहना चाह रहे हैं गलत हैं??
जाने-अनजाने हम में से हर कोई कहीं ना कहीं राष्ट्र-गान का अपमान करता हैं। एक अहम सवाल जो मेरे मन में उठ रहा हैं कि क्या यह सचमुच राष्ट्र-गान का अपमान हैं? अगर हा तो फिर विरोध जताने का क्या उपाय होना चाहिये??


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Monday, April 20, 2009

खुशवंत सिंह के मानसिक दिवालियापन का एक और सबूत

सही ढंग से देखने के लिये चित्र पर क्लिक करे-
खुशवंत सिंह मानसिक रुप से दिवालिया हैं, इसका सबूत दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित उनके एक लेख से मिलता हैं। शनिवार को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित अपने एक लेख में खुशवंत सिंह ने चार हिंदू महिलायें उमा भारती, ऋतम्भरा, प्रज्ञा ठाकुर और मायाबेन कोडनानी के बारे में अभद्र टिप्पणी की हैं। साध्वी ऋतम्भरा के बारे में लिखते हुये खुशवंत सिंह ने मशहूर मनोविज्ञानी सुधीर कक्कड़ के हवाले से हिंदुस्तानी चरित्र का दोहरापन माना हैं। चारों महिलाओं पर आरोप लगाते हुये, खुशवंत सिंह लिखते हैं कि ये सेक्स कुंठा से जुड़ा हुआ हैं।


महिलाओं पर अभद्र,गैर-मर्यादित टिप्पणी के लिये खुशवंत सिंह खुख्यात रहे हैं। 93 साल के उम्र में अपनी सेक्स कुंठा को किसी और पर थोपने की यह चाल इस बात को इशारा करती हैं कि अब खुशवंत सिंह पूरी तरह से मानसिक दिवालिया हो गये हैं।


लेकिन लाख टके का सवाल, क्या खुशवंत सिंह पर कोई कारवाई होगी???
क्या महिलाओं के हित की बात करने वाली स्वयंसेवी संगठन इस मुद्दे को उठायेंगी???

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Sunday, April 12, 2009

लोकतंत्र के महापर्व में वाक्-चलीसा

ज्यों-ज्यों लोकसभा चुनाव की तिथि नजदीक आ रही हैं, आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति उफ़ान चढती जा रही हैं। वाकयुद्ध कुछ इस अंदाज से लड़ी जा रहीं हैं कि जैसे यह भारतीय लोकतंत्र की आखिरी लड़ाई हो। शुरूआत हुई पीलिभीत में दी गई वरुण गांधी की विवादास्पद बयान से। और आज तक इस में अनगिनत अध्याय जुट चुके हैं। लोकतांत्रिक मान-मर्यादा भुला कर हर कोई अपनी गुणगान और दुसरे की हजामत करने पर तुला हैं। और इन सब के बीच आम जनता की परेशानी और तकलीफ़ें कोई भी सुनने को तैयार नहीं हैं। विकास को मुद्दा बनाने को कोई भी राजनीतिक पार्टी तैयार नहीं दिख रही। आम आदमी का तो जैसे कोई हैसियत ही नहीं रखता।

स्वघोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहन कुमारी मयावती जी इस बात को मनवाने पर तुली हैं कि मुख्तार अंसारी से बड़ा गरीबों का मसीहा कोई हैं ही नहीं। वाराणसी लोकसभा सीट से बसपा के उम्मीदवार मुख्तार अंसारी के अपराधिक रिकार्ड को बताना तो गोया सुरज को दीये दिखाने के समान हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश का बच्चा-बच्चा मुख्तार अंसारी के बायोडेटा से वाकिफ़ हैं। गौर करने वाली बात यह हैं कि ये बहन कुमारी मयावती जी ही थी जिन्होंने बिना सत्यता परखे हुई वरुण गांधी पर रासुका लगा दिया था। दुसरों को परवरिश के मायने सिखाने वाली आज एक माफ़िया को गरीबों का सब से बड़ा मसीहा बता रही हैं।(लोकसभा चुनाव पर नज़र रख रहे नेशनल इलेक्शन वाँच के मुताबिक बसपा ने उत्तर-प्रदेश में सब से ज्यादा 24 आपराधिक रिकार्ड वालों को अपना उम्मीदवार बनाया हैं।)

अब बात करे समाजवादी पार्टी कि यहाँ आरोपों की राजनीति करने का ठेका अमर सिंह ने ले रखा हैं और इसमे उनका साथ दे रहे हैं संजय दत्त। केंद्रीय मिनिस्टर की स्टिंग आपरेशन की बात हो या फ़िर रोज रोज की आरोपो की बात। मीडिया में कैसे टिके रहना हैं कोई इन से सीखे। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमों "नेता जी" मुलायम सिंह यादव भी कुछ कम नहीं हैं, पहले ईटावा में महिला पुलिस अधिकारी को सरेआम जनता के मंच से धमकाना, और अब प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी पर बेइज्जत करने का इलज़ाम। यह साहब भी कुछ कम नहीं हैं।

बात करे बिहार की यहाँ वाकयुद्ध का ठेका ले रखा हैं, लालूप्रसाद जी और उनके धर्मप्तनी राबड़ी जी ने। लालू जी रोलर चला रहे हैं तो धर्मप्तनी तमाम मान मर्यादा को ताक पर रख कर बयान दी जा रही हैं। बिहार में विकास सबसे बड़ा मुद्दा बनना चाहिया था, क्योंकि आज की वैश्विवक हालातों में सब से ज्यादा पिछिड़ा राज्य बिहार ही हैं। लेकिन न तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन शासित नीतिश कुमार की सरकार और ना मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल विकास को मुद्दा बनाने को तैयार हैं।

दो प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस ने भी वाकयुद्ध के लिये कमर कस रखा हैं। इन दोनों दलों में वाकयुद्ध की शुरुआत हुई सोनिया गांधी द्वारा नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहने से। जो अब पहुँच चुका हैं 125 साल की बुढिया कांग्रेस तक। यहाँ कमान संभाल रखा हैं दोनों दल के प्रमुक नेताओं ने। अगर बात करे दक्षिण की तो यहाँ पुलिस ने मरूमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कषगम के महासचिव वाइको के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज कर लिया हैं। वाइको ने कहा था कि कहा था कि अगर श्रीलंका में लिट्टे प्रमुख वी. प्रभाकरण को थोड़ा भी नुकसान पहुंचाया गया, तो तमिलनाडु में खून की नदियां बह जाएंगी और यहां के युवा हथियार उठा लेंगे।

सवाल ये उठता हैं कि अगर नेतागण इतने उतवाले ही हैं आरोप-प्रत्यारोप को, तो फ़िर किसी पब्लिक प्लेटफॉर्म पर क्यों नहीं??? अगर यह सारा ड्रामा किसी टीबी चैनल पर हो, तो देश की जनता भी तो देख पायेगी की किसे वह अपना प्रतिनिधित्व करने के लिये भेज रही हैं। हाँ, यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि अधिकतर बयान किसी आमसभा में दी गयी हैं। लेकिन यह आपको भी पता हैं कि रैली में भीड़ कैसे इकठ्ठा की जाती हैं।

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Thursday, April 9, 2009

आखिर क्यों फ़ेंका जरनैल सिंह ने जूता ???

दैनिक जागरण के वरिष्ठ पत्रकार जरनैल सिंह ने आखिर क्यों प्रैस वार्ता में पी.चिदंबरम की तरफ़ जूता फ़ेंका?? यह कहना कि जूता पी.चिदंबरम को मारा गया था, गलत होगा। पहले क्रम में बैठे जरनैल सिंह अगर पी.चिदंबरम को हानि पहुँचना चाहता, तो वह बहुत असान होता। तो आखिर क्यों फ़ेंका गया जूता??

दरअसल अगर इस पूरे घटनाक्रम से पत्रकारिता हटा दे, तो यह एक आम आदमी का सिस्टम के खिलाफ़ बढता अविश्वास का फ़लसफ़ा मात्र हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में भड़के सिख विरोधी दंगों में मारे गये हजारों निर्दोषों के परिजन आज पच्चीस साल बीत जाने के बावज़ूद न्याय के लिये दर-दर ठोकर खा रहे हैं। कितने आयोग बनी, न्यायपालिका का मखौल बनाया गया। और साथ में मखौल बनाया गया न्याय की उम्मीद लगाये परिजनों का।

और अहम चुनाव के वक्त 1984 के सिख विरोधी दंगों के आरोपी पूर्व केन्द्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर को केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने क्लीन चिट दे दी। सीबीआई ने साथ ही साथ मामले को रद्द करने की रिपोर्ट भी दाखिल कर दी। क्या यह अपने आप में संदेहास्पद नहीं लगता?? जिस कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा सिख विरोधी दंगों को न्यायोचित ठहराया गया हो, उस पार्टी के सरकार से और क्या उम्मीद की जा सकती हैं। यह सरासर न्याय प्रणाली के दुरुपयोग का मामला हैं। सिख विरोधी हिंसा के बाद आपराधिक न्याय प्रणाली का खुब दुरुपयोग, आरोपियों को बचाने के लिये किया गया। ख़ासकर सीबीआई सत्तारुढ़ पार्टियों के हाथ का कठपुतली बन कर रह गयी हैं। जो भी पार्टी सत्ता में आती हैं, सीबीआई को दुधारू गाय की तरह दोहन करती हैं। चाहे वह कांग्रेस हो या फ़िर बीजेपी। लेकिन कांग्रेस ने सीबीआई क कुछ ज्यादा ही दोहन किया हैं।

जो पार्टी भारतीय लोकतंत्र की मापदण्ड तय करने का दावा करे, उससे कम से कम इन बातों की अपेक्षा किसी ने शायद ही की हो। जो पार्टी हर अगले दल पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाये, कम से कम उस पार्टी से न्याय की अपेक्षा तो की ही जा सकती थी। खैर, जरनैल सिंह के जूता ने इतना काम तो कर ही दिया, कि आदरणीय जगदीश टाइटलर जी ने चुनाव से अपना नाम वापस ले लिया। लेकिन क्या यह समाधान हैं??? अगर जगदीश टाइटलर दोषी नहीं हैं, तो आखिर कौन था 1984 के दंगे का मास्टरमांड??? आखिर कब मिलेंगी दंगापीड़ितों को समुचित न्याय??? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने जिम्मेंदारी से पीछे नहीं हट सकती।


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Wednesday, April 8, 2009

लोकतंत्र का महापर्व और "कुछ ख्वाहिश"

भारतीय लोकतंत्र के महापर्व की तैयारियाँ चरमकाष्टा पर पहुँच चुकी हैं। साम, दाम, दंड, भेद………… हर हथकंडा अपनाया जा रहा हैं। सत्ता सुख से कोई महरुम नहीं होना चाहता हैं। वादे किये जा रहे हैं। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति खुब परवान चढ रही हैं। कोई हाथ काटने पर तुला हैं तो कोई सीने पर रोलर चलवाने पर। लेकिन इन सब के बीच आम आदमी की अवाज कही सुनने को नहीं मिल रहा। एक आम आदमी को क्या चाहिये, इस बात पर कोई भी राजनीतिक पार्टी ध्यान नहीं दे रही।

भारतीय राजनीति में अब सिर्फ़ वहीं खिलाड़ी टिक सकता हैं, जिसके पास अकूत पैसा हो। जिसके पास किसी खास वर्ग का वोट बैंक हो। इस वैश्विक वित्तीय संकट में राजनीति अपना प्रभाव
बढाकर पैसे कमाने का साधन बन गया हैं। खैर यह तो थी कुछ सत्य, जिससे हर कोई वाकिफ़ हैं। अब बात करते हैं, राजनीति से मुझे क्या चाहिये ? और यह मांग लगभग हर युवा हिंदुस्तानी का हैं।

(1) एक सरकार जो देश की गरीब, पीड़ित, संघर्षरत जनता का प्रतिनिधित्व करे।
(2) नेताओं के उम्र सीमा तय करे।
(3) तुष्टीकरण की नीति बंद करे।

4) युवा शक्ति को राजनीति में अहम किरदार प्रदान करे।
(5) सांप्रदायिकता और जातिवाद की राजनीति बंद करे।
(6) आपराधिक छवि के नेताओं के लिये लोकतंत्र के मंदिर के दरवाजे बंद करे।
(7) दलबदलू नेताओं को राजनीति से बाहर करे।
(8) आतंकवाद के खिलाफ़ सख्त कारवाई करे।

(9) विकलांगो के कल्याण के लिए योजना बनाये।
(10) हर बच्चा स्कूल जायें। शिक्षा की जिम्मेवारी सरकार की हों।
(11) क्षेत्रीय पार्टियों को केंद्र की राजनीति से दुर रखे।
(12) चुनावी काम में लगे सरकारी कर्मचारियों के लिये वोट डालने की समुचित इंतजामात किया जाये।
(13) वोट डालने को अधिकार नहीं, जिम्मेवारी घोषित किया जाये।
(14) आरक्षण की नीति को सिर्फ़ प्राइमरी लेवल तक रखा जाये। आरक्षण माली हलात पर हो, न की जात या धर्म के नाम पर्।
(15) काले धन पर सख्त कानून लाये।



ये "कुछ ख्वाहिश" हैं, जोकि भारतीय लोकतंत्र को एक गतिशील लोकतंत्र बना सकता हैं। अगर आप इनमे से किसी बात से सहमत ने हो, तो कमेंट के जरिये अपनी बात रखे।

Wednesday, January 14, 2009

कलम के सिपाहियो को मत गुलाम बनाओ


उपरोक्त दोनों विजुअल में से कोई एक कापी करके अगर आप अपने ब्लाग पर लगाते हैं तो मीडिया के खिलाफ प्रस्तावित काले कानून से लड़ रहे मीडियाकर्मियों के प्रति अपने सक्रिय समर्थन का इजाहर करेंगे!

 

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट