* लोकतंत्र के महापर्व में वाक्-चलीसा * आखिर क्यों फ़ेंका जरनैल सिंह ने जूता ? * लोकतंत्र का महापर्व और "कुछ ख्वाहिश" * "कश्मीरी पंडित" होने का दर्द * राजनेताओं हो जाओ सावधान, जाग रहा हैं हिंदुस्तान * जागो! क्योंकि देश मौत की नींद सो रहा हैं। * आखिर यह तांडव कब तक? * पाकिस्तानियों में अमेरिकी नीति का खौफ * खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह गया दादा * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 04 * क्या इसे आतंकवाद न माना जाये ? * कही कश्मीर नहीं बन जाये "असम" * जेहाद या आतंकवाद का फसाद * बेबस हिन्दुस्तान, जनता परेशान, बेखबर हुक्मरान * ‘आतंकवाद की नर्सरी’ बनता आजमगढ़ * आतंकवाद का नया रूप * आतंकवाद और राजनीति *

Sunday, December 14, 2008

"कश्मीरी पंडित" होने का दर्द

गर फ़िर्दौस बर रुए ज़मीन अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त । (फ़ारसी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शब्द) अगर इस धरती पर कहीं स्वर्ग है, (तो वो) यहीं है, यहीं है ।

प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये । सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन ने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसल्मान बनने पर, या राज्य छोड़ने पर या मरने पर मजबूर कर दिया था। नतीजा कुछ ही सदियों में कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुमत हो गया । यह तो हो गयी ख़ूबसूरत कश्मीर की इतिहास की एक बानगी।

1990 के दशक में जब आतंकवाद अपने चरम पर था तो कई आतंकवादियों ने चुन-चुन कर कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया। सरकारी आंकरे के अनुसार भारत की आज़ादी के समय कश्मीर की वादी में लगभग 15 % हिन्दू थे और बाकी मुसल्मान। आतंकवाद शुरु होने के बाद आज कश्मीर में सिर्फ़ 4 % हिन्दू बाकी रह गये हैं।

कश्मीरी पंडितों को 1990 में कश्मीर छोड़ कर भागने पर विवश करने में हिजबुल मुजाहिदीन सबसे आगे था। हलाँकि चरमपंथी गतिविधियों के तहत राज्य में पहली गोली चौदह सितंबर, 1989 को चली जिसने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू को निशाना बनाया गया था। उसके कुछ महीने बाद जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या की गई और कश्मीरी पंडितों में एक दहशत का माहौल पैदा हो गया। उस समय के हिजबुल मुजाहिदीन प्रमुख अहसान डार ने मीडिया के जरिये कश्मीरी पंडितों को घाटी से चले जाने का फरमान जारी किया था।

नतीजा बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितो ने राज्य से पलायन किया और अपना घर संपत्ति और ज़मीन से महरूम भारत के अलग-अलग राज्यों में बड़ी दयनीय स्थिति में जीवन बिता रहे हैं। आज हालत ने विस्थापित कश्मीरी पंडित को अपने देश में ही शरणार्थी बना दिया हैं।

सरकारी आंकड़े के अनुसार:
  • जम्मू कश्मीर में प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 34,878
  • कश्मीर से बाहर प्रवासी के रूप में पंजीकृत परिवार : 21,684
  • शिविरों में रहने वाले परिवार : 15,045

कश्मीरी पंडित इतने भयभीत हैं कि सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर लौटने की इच्छा रखने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए 1600 करोड़ रु. का पैकेज घोषित किया था। ऐसे प्रत्येक परिवार को 7.5 लाख रुपए दिए जाने की घोषणा की गयी थी। कुछ साल पहले हिज़्बुल मुजाहिदीन के नेता सैयद सहाबुद्दीन ने कहा था कि कश्मीरी पंडित वापस अपने प्रदेश लौट सकते हैं । उन्हें उनका संगठन पूरी सुरक्षा देगा। लेकिन तमाम दावे, वादों के बाबजूद कश्मीरी पंडित वापस अपने जरो को नहीं लौटना चाहरहे हैं। आखिर क्यों???

अगर सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद घर लौटने को तैयार नहीं हैं??? तो इसके पीछे भी सरकारी लापरवाही जिम्मेदार है। जब कश्मीरी पंडितों ने अपनी व्यथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने रखी थी, आयोग ने इस बात को तो माना कि राज्य में मानवाधिकारों का हनन हुआ है लेकिन उनकी इस माँग को अस्वीकार कर दिया कि उन्हें नरसंहार का शिकार और आंतरिक रूप से विस्थापित माना जाए।

इसके पीछे की वजह जानने से पहले शायद इनके दर्द को समझना होगा। विस्थापित होने का दर्द, अपनों से अलग होने का दर्द, अपनी मिट्टी छुटने का दर्द, अपनों को खोने का दर्द, राहत शिविरों में रहने का दर्द, बच्चो की शिक्षा छुटने का दर्द, अपने ही देश में शरणार्थी होने का दर्द........जिस दिन हम कश्मीरी पंडितो का यह दर्द समझ जायेंगे, हम इन्हें वापस कश्मीर की हसीन फिजा में कश्मीरियत(कश्मीर की संस्कृति) फैलाते पाएंगे। कहते हैं कि हर कश्मीरी की ये ख़्वाहिश होती है कि ज़िन्दगी में एक बार, कम से कम, अपने दोस्तों के लिये वो वाज़वान(कश्मीरी दावत ) परोसे। और तब यह ख़्वाहिश न जाने कितने कश्मीरी पंडितो की पूरी होगी। वादी-ए-कश्मीर अपने बिछरे दोस्तों का तहे दिल से इस्तकबाल करने को बेचैन हैं। बाकी देश की राजनीति और राजनितिक आकाओ के रहम करम पे।

यह पोस्ट पहले भी खबरनामा पर आ चुकी हैं। लेकिन कश्मीर में बदलते राजनीतिक हालातों के बीच एक उम्मीद जग रही हैं कि शायद "कश्मीरी पंडितों" को उनकी हक वापस मिले।

सुमीत के झा (Sumit K Jha)

www.nrainews.com


Wednesday, December 3, 2008

राजनेताओं हो जाओ सावधान, जाग रहा हैं हिंदुस्तान

मुंबई हमले के विरोध में सारा देश उठ खड़ा हुआ हैं। हमले के विरोध में बुधवार को लोगों का जन सैलाब मुंबई में गेटवे ऑफ इंडिया के निकट इकट्ठा हुई। दिल्ली में भी जंतर-मंतर और इंडिया गेट पर मुंबई में हुए आतंकी हमले के विरोध में जन सैलाब उमर पड़ा। 59 घंटे की आतंक ने देश को दहशत और नफरत के जज़्बातों में गोते लगाने को मजबूर कर दिया हैं। जन सैलाब में पाकिस्तान के साथ-साथ राजनेताओं के खिलाफ़ जबर्दस्त गुस्सा देखने को मिला। देश में राजनेताओं के खिलाफ़ ऐसी नफ़रत कभी नहीं देखी गयी।

यह देश की जनता की स्वत:स्फूर्त भावना थी। यह आयोजन प्रायोजित नहीं था, एसएमएस, मेल, रेडियो स्टेशनों, टीवी चैनलों से लोगों को आतंकवाद के खिलाफ इस प्रदर्शन में शामिल होने की अपील की गई थी। इस जनआंदोलन में सभी वर्ग के लोगों ने हिस्सा लिया। जिनमें छात्र, स्वयंसेवी संगठन के लोग, प्रोफ़ेसर, बुद्धिजीवी, उद्यमी और बॉलीवुड के सितारे भी शामिल थे। प्रदर्शनकारियों के हाथों में तिरंगा झंडा, तख़्तियाँ और बैनर थी। ज़्यादातर प्रदर्शनकारी का मानना था कि हमारे सॉफ्ट स्टेट की पॉलिसी और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते ही कोई भी हमारे 'घर' में घुसकर हमें मारकर चला जाता हैं।

वहीं दूसरी तरफ़ मुंबई में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे आमजनों को मुंबई पुलिस ने बलपूर्वक भगा दिया। जिसके लिये कोई ठोस कारण नहीं बताया गया। शायद शासन की बुनियाद को हिला कर रख देनी वाली इस विरोध प्रदर्शन को सरकार पचा नहीं पा रही।
By: Sumit K Jha
www.nrainews.com
 

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट