* लोकतंत्र के महापर्व में वाक्-चलीसा * आखिर क्यों फ़ेंका जरनैल सिंह ने जूता ? * लोकतंत्र का महापर्व और "कुछ ख्वाहिश" * "कश्मीरी पंडित" होने का दर्द * राजनेताओं हो जाओ सावधान, जाग रहा हैं हिंदुस्तान * जागो! क्योंकि देश मौत की नींद सो रहा हैं। * आखिर यह तांडव कब तक? * पाकिस्तानियों में अमेरिकी नीति का खौफ * खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह गया दादा * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03 * कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 04 * क्या इसे आतंकवाद न माना जाये ? * कही कश्मीर नहीं बन जाये "असम" * जेहाद या आतंकवाद का फसाद * बेबस हिन्दुस्तान, जनता परेशान, बेखबर हुक्मरान * ‘आतंकवाद की नर्सरी’ बनता आजमगढ़ * आतंकवाद का नया रूप * आतंकवाद और राजनीति *

Sunday, November 30, 2008

भड़ास: बह मुझे अब भी माँ कहता है

भड़ास: बह मुझे अब भी माँ कहता है

जागो! क्योंकि देश मौत की नींद सो रहा हैं।

आखिरकार 195 से ज़्यादा बलिदानों के बुते मुंबई ने फ़िर से अपने रफ़्तार पकड़ ली। कभी न रुकने वाली मुंबई पिछ्ले तीन दिनों से ठहर सी गयी थी। सलाम उन वीरों को जिन्होंने अपने जाबांजी से मुंबा देवी और हाजी अली के इस दुलारे शहर को आतंक की काली साया से एक नयी सुबह दिखायी। सलाम एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, एनएसजी कमांडो संदीप उन्नीकृष्णन और गजेन्द्र सिंह को जिन्होंने देश के दुश्मनों से लौहा लेते हुए और उनका खात्मा करते-करते अपने प्राण न्यौछावर कर दी। यहाँ मुम्बई फायर ब्रिगेड दल के उन जाबांज कर्मचारियों का उल्लेख करना भी आवश्यक है,जिन्होनें अपने दिलेरी से ऐतिहासिक ‘ताजमहल होटल' को जलने से बचाया। 105 साल पुराने इस ऐतिहासिक होटल को जलाकर आतंक के सौदागर, इस मुल्क को कभी न भुलाने वाला दर्द देना चाहते थे। लेकिन हमेशा आग पर काबु पाने वाले फायर ब्रिगेड दल के इन जाबांजे ने इस बार आतंक की आग पर पानी फेर दिया। यह मुम्बई फायर ब्रिगेड दल के लड़ाके ही थे,जिन्होंने ताज में पहला कदम रखा और कई बंधकों को ताज से सफलतापूर्वक बाहर निकाला। धन्यवाद ताज और ओबेरॉय होटल के कर्मचारियों का जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य का पालन किया।


लेकिन इस आतंकवाद का अंत कहा और कैसे। कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन आतंकवाद रोज़ सुरसा की तरह मुंह फैलाए जा रहा हैं। कही हम राजनीतिक सत्यता के चक्कर में आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी का रुख़ अपनाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे। अकसर देखा गया है कि आतंकवादियों द्वारा एक ख़ास वर्ग को धार्मिक एवं अन्य कारणों से भड़काकर, उकसाकर आतंकी घटना को अंजाम दिया जाता है। बिना स्थानीय नागरिको के मदद से कोई भी आतंकवादी हमला हो ही नहीं सकता। मुंबई में भी जिस तरह से आतंकवादी कारवाई को अंजाम दिया गया है स्थानीय नागरिकों की संलिप्तासे इंकार नहीं किया जा सकता।


आतंकवादियों पर कठोर से कठोर कार्रवाई की जाने की जरुरत आन पड़ी हैं। जब अफगानिस्तान जैसे देश के राष्ट्रपति हामिद करजई तालिबान से तंग आकर पाकिस्तान की सीमा में घुसकर तालिबान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की चेतावनी दे सकते हैं तो भारत सरकार क्यों बांग्लादेश और पाकिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने में हिचकती है? आखिर क्यों हमेशा धमाकों से सहमकर आम जनता पर बंदिशें लगायी जाती हैं। क्यों नहीं भारत सरकार अमेरिका और इसराइल की तर्ज पर ढूँढो और मारो की नीति अपनाते हुए इन आतंक फैलाने वालों का सफाया कर उनमें पलटवार का ऐसा डर बैठाती हैं, कि कोई भी आतंकवादी या आतंकी संगठन भारत और उसके नागरिकों को नुकसान पहुँचाने से पहले सौ बार सोचने को विवश हो।


हमेशा देखा जाता है कि आतंकवादी गतिविधियों में कम उम्र के युवाओं को इस्तेमाल में लाया जाता हैं। भारत के संविधान ने सभी धर्मों को अपने धर्म के प्रचार, प्रसार व शिक्षा की स्वतंत्रता दी है, पर कई बार इसकी आड़ में बच्चों में बचपन से ही अलगाववाद की भावना भर दी जाती है। मुस्लिम मदरसे हों, सिख स्कूल हों, मिशनरी हों या हिन्दू पाठशाला, सभी के पाठ्यक्रम में एकरूपता लाई जाना चाहिए। कई बार बच्चों में दूसरे धर्मों के प्रति गलत व बुरी धारणाएँ बन जाती हैं, पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से बच्चे के दिमाग में फैली भ्रांतियाँ दूर की जा सकती हैं।


और इन सबसे उपर जरुरत हैं आतंकवाद निरोधी कानून को पुख्ता बनाने की। वर्तमान कानून इस समस्या से निपटने में प्रभावी नहीं है। भारत में कानून बड़े पुराने हैं और अब प्रासंगिक भी नहीं रहे। आतंकवाद निरोधक कानूनों की समय-समय पर समीक्षा हो, जिससे जरूरत पड़ने पर आवश्यक बदलाव या फेरबदल संभव हो। साथ ही जरुरत हैं एक संघीय एजेंसी बनाने की जिसे आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में विशेष अधिकार मिले हो। आतंकवाद पर काबू पाने के लिए आतंकवादियों अथवा आतंकवादी संगठनों के समर्थको व शुभचिंतको पर भी कठोर कार्यवाई की जाने की जरुरत भी आन पड़ी हैं।


अब जागने की जरुरत आन पड़ी हैं वर्ना देश मौत की नींद सो जायेगी।
By: Sumit K Jha
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Saturday, November 29, 2008

आखिर यह तांडव कब तक ?

देश की वित्तीय राजधानी मुबंई में आखिरकार आतंक का नंगा नाच जंबाज सिपाहियों के बलिदान के बुते समाप्त हो गया। लेकिन कोलाबा के लियोपोल्ड रेस्तराँ से शुरू हुआ आतंक का यह नंगा नाच अपने पीछे कई ज्वलंत सवाल छोड़ गया हैं। सबसे बड़ा सवाल आखिर यह तांडव कब तक ? आज देश अपने हुक्ममरानों से पूछता हैं आखिर आतंकवाद के बेदी पर और कितने बलिदान देगा हिंदुस्तान ? कितने हेमंत करकरे,मेजर संदीप उन्नीकृष्णन और गजेंद्र सिंह को पूरे राजकीय सम्मान के साथ भावभीनी श्रद्धांजलि दी जायेगी ? आखिर क्यों 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई बडा आतंकवादी हमला नहीं हुआ ? क्या सही मायने में हम आतंकवाद के खिलाफ लडाई में हार रहे हैं ? अगर हाँ, तो जिम्मेदारी किसकी ?

आतंकवादी हमेशा एक नये तरीके से अपने कारनामों को अंजाम दे रहा हैं। लेकिन तमाम वादों,कसमों और दावों के बावजूद परिणाम वहीं ढाक के तीन पात आ रहे हैं। अगर पिछ्ले कुछ आतंकवादी हमलों का विश्लेषण किया जाये, तो एक खास पैटर्न का इस्तेमाल देखने को मिलता था। लेकिन मुबंई में उसे नहीं अपनाया गया। इतना ज्यादा गोला-बारुद हमले के वक्त़ एक बार में होटल के अंदर ले जाना नामुमकिन था। तो क्या इसे पहले से होटल के अंदर जमा किया जा रहा था ? अगर हाँ, तो क्या इसे खुफ़िया तंत्र और होटल प्रशासन की लापरवही मानी जाये ? आतंकी जिस तरह से पुलिस की गाड़ी लेकर मुबंई की सड़कों पर भागे, उससे लगता था कि वे मुबंई की सड़कों से अनजान नहीं थे। तो क्या सचमुच आतंकी विदेशी थे ? या फ़िर इनके साथ कुछ स्थानीय नुमांईदे भी थे ? या ये विदेशी आतंकी पहले से मुबंई मे डेरा जमा रखे थे ? यहाँ फिर खुफ़िया तंत्र की नकामी नज़र आ रही हैं।

हमेशा की तरह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने इस हमले में विदेशी हाथ होने का दावा किया हैं। माननीय प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के पास इसके समर्थन में क्या सबुत हैं ? और अगर सबुत हैं,तो आखिर कितने बलिदानों का इंतजार हैं माननीय प्रधानमंत्री और गृहमंत्रीजी को ? मेरे पहुँचने से डर कर भाग गये आतंकी। क्या यह बयान किसी भी मुल्क के गृहमंत्री उन हालातों के बीच दे सकता हैं ? पाटिल साब अगर सचमुच आपके डर से आतंकी भाग खड़े हुये, तो कामा अस्पताल के साथ-साथ आपको ताज होटल, ओबेरॉय होटल और नरीमन हाउस भी जाना चाहिये था। अगर आप ऐसा करते तो शायद जान-माल की इतनी क्षति नहीं उठानी पड़ती।

पाटिल साब, इतनी मांगों के बावज़ूद आखिर क्यों एक आतंकवाद निरोधक केंद्रीय एजेंसी नहीं बनायी जा रहीं ? आखिर क्यों आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई को भी राज्यों के भरोसे छोर दिया गया हैं ?

अब जनता हिसाब मांगना शुरू कर चुकी हैं, और अब हुक्ममरानों को जबाब देने के लिये तैयार हो जाना चाहिये। देश के नागरिकों की जान की कीमत चंद सिक्कों में नहीं तोली जा सकती। और न हमारी मौत का फ़ैसला सीमापार बैठे कुछ कायर कर सकते हैं। भारत के सरजमीं पर आये हर सैलानी यहाँ के मेहमान हैं, कसम उन जानों की यह तांडव और नहीं।


अब यह अवाम पूछता हैं हुक्ममरानों से आखिर यह तांडव कब तक ?

Sumit K Jha(सुमीत के झा)
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Monday, November 24, 2008

पाकिस्तानियों में अमेरिकी नीति का खौफ

'न्यूयार्क टाइम्स' में एक रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद पाकिस्तानी अवाम में मुल्क के टुकड़े-टुकड़े होने का खौफ समा गया हैं। 'न्यूयार्क टाइम्स' की रविवार को प्रकाशित 'ए रिड्रोन मैप ऑफ साउथ एशिया' नामक रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तानी रणनीतिकारों और अवाम में भारत और अफगानिस्तान के बीच बन रहे रणनीतिक संबंध से खलबली मच गई है। रिपोर्ट के अनुसार, ज्यादातर पाकिस्तानी मानते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान को मजबूत करने की बजाए इस इस्लामी मुल्क के टुकड़े-टुकड़े करने में अपनी सहभागिता दे रहा हैं। रिपोर्ट में पाकिस्तान सेना के जनरल (सेवानिवृत्त) तलत मसूद के हवाले से कहा गया है कि पाकिस्तानी अवाम अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी को शक की निगाह से देख रहा हैं। जनरल (सेवानिवृत्त) तलत मसूद ने कहा कि पाकिस्तानी हुक्ममरान भारत की अफगानिस्तान में मौजूदगी से खफा हैं। और इसे रोकने के लिये अमेरिकी दख़ल चाहता हैं। लेकिन अमेरिकी सरकार इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर रही है।

पाकिस्तानी सेना के कुछ अधिकारी का मानना हैं कि पाकिस्तान में कबायली इलाकों में हो रहे अमेरिकी हमले आग में घी का काम कर रहे हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में केवल अमेरिका को फायदा हो रहा है और पाकिस्तान का तो महज इस्तेमाल किया जा रहा है। यह बात पाकिस्तानी अवाम में घर करती जा रही हैं।

भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते को भी पाकिस्तान में शक की निगाह से देखा जा रहा हैं। पाकिस्तानी सेना कुछ अधिकारियों के हवाले से कहा गया हैं कि परमाणु समझौते से साबित होता है कि भारत और अमेरिका के बीच सैन्य रिश्ते तेजी से मजबूत होते जा रहे हैं। अफगानिस्तान में भारी भारतीय निवेश को लेकर भी पाकिस्तान में खलबली मच गई है। गौरतलब है कि भारत ने अफगानिस्तान की सेना को प्रशिक्षण देने की पेशकश की थी। साथ ही साथ भारत ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में अफगानी संसद भवन के निर्माण के लिए 950 करोड़ रुपए की भारी-भरकम रकम देने का भी एलान किया था।

अमेरिका में नये बनते राजनीतिक समीकरण के बीच पाकिस्तानी अवाम की ये शिकायत कितनी सुनी जाती हैं, यह देखना मजेदार होगा।

Sumit K Jha
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Sunday, November 16, 2008

प्रेस दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं


आज 16 नवंबर, प्रेस दिवस है। हालाँकि अन्य लोगों की तरह मुझे भी पता नही था। लेकिन धन्यवाद पुण्य प्रसून बाजपेयी जी को जिन्होंने इस दिन के बारे में बताने की जहमत उठायी। खैर देर आयद, दुरुस्त आयद। बस इस प्रेस दिवस पर एक कामना, सत्य जानना जनता का हक हैं, जिसे जनता तक ले जाना हमारा फ़र्ज हैं। इसे उसी नज़र से देखा जाये।
सुमीत के झा(Sumit K Jha)

Tuesday, November 11, 2008

खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह गया दादा

करीब एक साल पहले, भारतीय क्रिकेट टीम से सौरव गांगुली को बेआबरू कर निकाला गया था। किसी ने नहीं सोचा था, भारतीय क्रिकेट टीम को जितना सिखाने वाला बंगाल का यह शेर कभी शान से नीली टोपी पहन पायेगा। लेकिन शायद आम और खास में यहीं एक अंतर होता हैं। दादा ने वापसी की, और शान से वापसी की। हमेशा बल्ले के साथ-साथ जुबान का इस्तेमाल करने वाले ने इस बार सिर्फ़ बल्ले को चुना। आलोचकों को जवाब मिला नये बनते रिकार्डों से।

न्यूजीलैंड के महान ऑलराउंडर रिचर्ड हैडली ने कहा था, कि चयनकर्त्ताओं के फ़ैसले से पहले किसी भी खिलाड़ी को अपनी सम्मानजक विदाई का फैसला कर लेना चाहिए। और दादा ने भी बेंगलुरु में एक संवाददाता सम्मेलन में बिल्कुल अचानक घोषणा की ऑस्ट्रेलिया सीरिज़ उनकी आखिरी सीरिज़ होगी। महाराजा ने अपने क्रिकेट सफ़र का आगाज 1992 में इंग्लैंड के खिलाफ़ लॉर्ड्स में शतक के साथ किया था। और यह सफ़र सात देशों के खिलाफ टेस्ट शतक के साथ अंजाम पाया। ऑस्ट्रेलिया को भारत में और पाकिस्तान को उसी के घर में 50 साल बाद हराना दादा ने ही मुमिकन बनाया। सौरव गांगुली ने कप्तान के तौर पर टीम में आक्रामकता और लड़ने की भावना जगायी। लॉर्ड्स के बालकोनी से टी-शर्ट हवा मे लहराना कौन भुल सकता हैं।

प्रिंस ऑफ़ कोलकाता ने अपने टेस्ट जीवन का समापन 113 टेस्टों में 7212 रन के साथ किया जिनमें 16 शतक और 35 अर्धशतक शामिल है। देश के सफलतम कप्तान गांगुली ने 49 टेस्टों में भारत का नेतृत्व किया और 21 मैच जीते।

दादा आपको शुक्रिया "भारतीय क्रिकेट टीम" को "टीम इंडिया" बनाने के लिये। जब भी आक्रामकता की बात आयेगी, दादा आप बहुत याद आयोगे। ऑफ साइड का वह शाट्स शायद अब देखने को नही मिलेगा। दादा, जिस खामोशी से क्रिकेट को अलविदा कह रहे हो, उसी खामोशी से इसे भुल मत जाना।


अलविदा दादा !!!

सुमीत के झा(sumit ke jha)
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Sunday, November 9, 2008

जोश से दौड़ी साढी दिल्ली

एयरटेल दिल्ली हाफ मैराथन में दुनिया के जाने-माने धावक व विख्यात हस्तियों समेत करीब 25 हजार लोगों ने हिस्सा लिया। इथियोपिया के देरीबा मेरगा ने हाफ मैराथन की पुरुष दौड़ 59।14 मिनट में पूरी कर जीती। इथियोपिया की ही एसेलेफेक मेरगिया ने महिला दौड़ 68।16 मिनट मे पूरी कर जीत हासिल की। सुबह सात बजे विनय मार्ग से शुरू हुए एयरटेल दिल्ली हाफ मैराथन में सितारे भी जमीं पर उतर आये। हाफ मैराथन के ब्रैंड ऐंबैसडर जैकी जॉयनर कर्सी, न्यूजीलैंड के पूर्व क्रिकेट रिचर्ड हेडली, सैफ अली खान, करीना कपूर, काजोल, अजय देवगन, विजेंद्र कुमार और मशहूर म्यूज़िक डाइरेक्टर ए आर रहमान ने दिल्ली हाफ मैराथन में सिरकत की। दिल्ली ग्रेट रन में चैरिटी अभियान को लेकर विभिन्न क्षेत्रों के हस्तियों की ड्रीम टीमें ने भी हिस्सा लिया।


इससे पहले सुबह सात बजे केंद्रीय सचिवालय स्थित विनय मार्ग से दिल्ली के उप राज्यपाल तेजेंद्र खन्ना ने हरी झंडी दिखाकर एयरटेल दिल्ली हाफ मैराथन को रवाना किया। दिल्ली हाफ मैराथन विनय मार्ग से शुरू होकर सत्य मार्ग अफ्रीका एवेन्यु सफदरजंग फ्लाईआ॓वर, अरविन्दो मार्ग, पृथ्वीराज रोड, मानसिंह रोड, अकबर रोड, राजपथ, जनपथ से वापस होते हुए विनय मार्ग स्थित सेंट्रल सेक्रेट्रिएट ग्राउंड पहुंची। इस साल इनाम में भी इजाफा किया गया था। कुल प्राइज मनी 210,000 अमेरिकी डॉलर की थी। हाफ मैराथन जीतने वाले महिला और पुरुष ऐथलीटों को 25,000 डॉलर दिए गये। दूसरे स्थान को 15000 और तीसरे को 10000 डॉलर दिए गये।

सुमीत के झा(sumit k jha)
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Wednesday, November 5, 2008

ओबामा बने अमेरिका के 44वें राष्‍ट्रपति

21 महीनों से जारी मैराथन के बाद डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बराक ओबामा अमेरिका के 44वें राष्‍ट्रपति चुन लिए गए हैं। अभी तक प्राप्त नतीजे के अनुशार डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बराक ओबामा को 367 वोट और मैक्केन के पक्ष में 168 वोट आए हैं। अमेरिका में जादुई आंकड़ा 270 इलेक्टोरल कॉलेज का होता हैं। सर्वेक्षणों की मानें तो बराक ओबामा शुरूआती दौर से ही जॉन मैक्केन पर पांच से 11 फीसदी की बढ़त बनाए हुए थे।

कई मायने में यह राष्ट्रपति चुनाव ऐतिहासिक रहा।अमेरिका के इतिहास में पहली बार कोई अश्वेत को राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त हुआ है। दो अमेरिकी अंतरिक्षयात्रियों ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपना मतदान अंतरिक्ष में किया। पिछले 40 साल में सबसे अधिक मतदान इस साल हुआ। चुनाव में लगभग तीन करोड़ वोटरों ने मतदान किया। एक अनुमान के मुताबिक प्रचार अभियान के दौरान तकरीबन दो अरब डॉलर (लगभग 100 अरब रुपए) का खर्च उम्मीदवारों ने किया था।

इस बीच शिकागो में अमेरिकी जनता से रुबुरु हुए बराक ओबामा। ओबामा ने अमेरिकी जनता को शुक्रिया कहा, और देश को आर्थिक संकट से निकालने का वादा किया।

By: सुमीत के झा (sumit k jha)
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Saturday, November 1, 2008

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 04

कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 01
कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 02
कैसे निपटा जाए आतंकवाद से- 03

छह महीनों में 73 बम धमाके,सिर्फ़ वर्ष 2008 में 934 से ज्यादा लोगों कि बम धमाके में मौत। इराक, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के बाद भारतवासियों ने आतंकवाद की बेदी पर सबसे ज्यादा बली दी हैं। 9/11 के बाद अमरीका में और 7/7 के बाद ब्रिटेन में कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ। लकिन भारत में तो क्रम सा ही बनता जा राहा हैं। जयपुर,हैदराबाद,बंगलौर,मालेगांव,दिल्ली और अब असम। आतंकियों ने बार-बार अपने हौंसलों और भारत सरकार की नाकामी को उजागर किया।

हर बार कि तरह असम धमाके के बाद रेड अलर्ट जारी कर दिया गया। लेकिन आखिर इस रेड अलर्ट से देश की आंतरिक सुरक्षा को कितनी मदद मिली ? सरकार सिर्फ़ रेड अलर्ट जारी कर अपने कर्तव्य से फ़ारिग नही हो सकती। राजनिती ने आतंकवाद के खिलाफ़ युद्घ को सिर्फ़ कमजोर किया हैं। ये आतंकवाद के प्रति नरम रुख का ही असर है, कि बाकायदा समाचार चैनलों को सूचना देने के बाद धमाके को अंजाम दिया जा रहा हैं। बदले मे सरकार रेड अलर्ट जारी कर, बयानबाज़ी कर अपने कर्तव्यो को इतिश्री कह रही हैं। राजनीतिज्ञों ने अपने तुष्टिकरण कि निति से दों धर्मों के बीच एक नफ़रत की खाईं बना दी हैं, जिसे भरने खुद राम-रहीम को आना पड़े। नफ़रत की यही खाईं आतंकवाद को खाद मुहैया करती हैं। आतंकवाद रुपी सुरसा ने न तो मंदिरों को बख्शा है और न मस्जिदों को। मरने वाला मंदिर में आरती कर रहा हो या मस्जिद में नमाज़ कर रहा हो, आतंकवादियों पर कोई फ़र्क नही पड़ता।

शायद अब वक्त़ आ गया है कि सियासतदानों को रेड अलर्ट,चौकसी,बयानबाज़ी,मुआवजों और तुष्टिकरण की राजनीति से उपर उठकर अवाम को एक सुरक्षित माहौल मुहैया कराये। वक्त़ आ गया है, कि सियासतदान संविधान के समक्ष ली गयी अखणडता की शपथ को याद करे। देश के निति निर्धारकों में जो ईच्छाशक्ति की कमी है,उसे सुधारना होगा। हम हद से अधिक उदासीन और सहिष्णु हो गए हैं। अब इन्हें अलविदा कहने का वक्त़ आ गया हैं।

दिल से बोलु तो अब आतंकवाद पर लिखने का मन नही करता। उपर वाले से बस यहीं कामना हैं, "अब बस"।

सुमीत के झा (sumit k jha)
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हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट