शाहरूख़ खान को नेवार्क में पूछताछ के लिए घंटों रोके रखना मीडिया में लगातार छाया रहा। लेकिन क्या हम अमेरिकी प्रशासन के इस कदम को गलत ठहरा सकते हैं? अगर कोई राष्ट्र अपने नागरिक की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं तो इसे सरकार की सरहानीय कदम मानना चाहिए। हम अपने नागरिकों की जान की कीमत चंद रुपयों में तोलते हैं। यहाँ तो लोकतंत्र के मंदिर पर हमला करने वाले को बिरयानी खिलाने का रिवाज हैं। कारगिल में शहीद हुए वीर जवानों के परिजनों को बुनयादी सुविधाऐं भी मुहैया नहीं करायी जाती। पाकिस्तानी जेलों में पता नहीं कितने युद्घबंदी भारतीय हुक्ममरानों को कोस रहे होते हैं। हम इतने दिल के अमीर हैं कि आजाद भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के आरोपियों पर कुछ भी कानूनी कार्रवाई नहीं करते। भोपाल गैस त्रासदी के लिये जिम्मेदार यूनियन कार्बाईड को हम माफ़ कर देते हैं। पुरुलिया में हथियारों का बारिश करने वालों को रुस के दबाव में सकुशल रिहा कर दिया जाता हैं। हम अपने आंतरिक मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाते हैं। नेहरु जी के उस भूल की सजा हम आज भी झेल रहे हैं। ज्यादा दुर क्यों जाये, जो कुछ मुंबई में हुआ उसके बाद भी हम अंतराष्ट्रीय हस्तक्षेप की उम्मीद पाले रहे। अमेरिका 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले को आज तक नहीं भुल पाया हैं क्योंकि वह अपने नागरिकों की इज्जत करता हैं। अमेरिका में जान की कीमत चंद डाँलरों में नहीं तोला जाता। अमेरिका पहले अपने नागरिकों के मानवधिकार की चिंता करता हैं, ना कि आतंकवादियों की।
शाहरूख़ खान के साथ जो कुछ हुआ वह शर्मनाक हैं। अगर सिर्फ़ खान होने का दंश शाहरूख़ को झेलना पड़ा तो भारत सरकार को उचित कार्रवाई करनी चाहिये। लेकिन माफ़ करे मुझे नहीं लगता कि मनमोहन सरकार इस पर कोई कार्रवाई करेगी। जो सरकार आस्ट्रेलिया में लगातार पिटे भारतीय छात्रों की रक्षा नहीं कर पायी उससे हम आगे क्या उम्मीद करे। मीडिया भी शाहरूख़ खान के मुद्दे को अपने आईने(टीआरपी) से देखती रहीं। जबकि जरुरत थी कुछ सबक सिखने की। अगर हमें सचमुच विकसित बनना हैं तो हमें अपने नागरिकों की इज्जत करनी होगी।